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ये कैसा विकास है, कैसी तरक्की है और कैसा मॉडर्नाइजेशन है समझ नहीं आता. व्यक्ति की मूलभूत जरूरतों में रोटी-कपड़ा-मकान आता है. जिसमें रोटी यानि की भोजन करना प्रथम आवश्यकता है. जब ये भोजन हम भूखे होने पर करते हैं तो भले ही भोजन ज्यादा स्वादिष्ट न हो, ज्यादा पोषक न हो या फिर ज्यादा आकर्षित करने वाला भी न हो, तब भी हम उस भोजन को बड़े ही चाव से ग्रहण करते हैं. इससे एक ओर तो हमारी भूख शांत होती है, दूसरा उस भोजन को पूरे सम्मान और सही तरीके से भी ग्रहण करते हैं.
यूं भी कह सकते हैं कि कम स्वादिष्ट, कम पौष्टिक और कम आकर्षक भोजन होने के बाद भी हम उसको थोड़ा भी फेंकते नहीं हैं, गिराते नहीं हैं आदि. लेकिन वहीं दूसरी ओर जब हमें कम भूख होती है या फिर भूख नहीं होती है, तो फिर भोजन चाहे जैसा हो, उसको ससम्मान पूर्ण न तो ग्रहण करते हैं और ही उसका आदर. हम ये भी जानते हैं कि कई करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोने को विवश होते हैं. क्योंकि वे भोजन की व्यवस्था करने में सक्षम नहीं होते और न ही उनकी पहुँच उन सामाजिक व्यवस्थाओं तक होती है, जो उनकी इस जरूरत को पूरा कर सके.
दावत खिलाना और खाना दोनों ही सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के भाग हैं. हर कोई अपनी हैसियत से इसे मुकम्मल कर समाज में नाम अर्जित करना चाहता है. लेकिन मुद्दे की बात ये है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम नाम तो कमा ले जा रहे हैं, लेकिन भोजन ग्रहण करने और करवाने की अपनी उस जिम्मेदारी को पूर्ण करने में हम विफल साबित होते दिख रहे हैं. क्योंकि दावत देकर, दावत का अपनी हैसियत अनुसार इंतज़ाम कर हम अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेते हैं. वैसे ही दावत खाने जाने वाले लोग भी, चूंकि न तो भूखे ही होते हैं और ही भोजन की प्राप्ति हेतु अक्षम, इसलिए उस अला-फलां दावत में भोजन करने का सलीका हम भूल गए हैं और भोजन की जो बेकद्री देखने में आती है, उसे बयां करना ठीक नहीं लगता है.
साथ ही हमारी सफाई की आदत भी साफ झलकती है. पिछले कुछ समय में जन्मदिन की पार्टी, शादी-विवाह की पार्टी और अन्य प्रकार की दावतों में यही देखने में आया कि काफी खुली जगह होने कि बाद भी हम खाने की मेजों पर लटकते दिखते हैं, हमें दूसरों से कोई मतलब नहीं है. ये नहीं कि खाना लिया और खाने की मेज से दूर हो गए. ये नहीं कि प्लेट लेकर खड़े हैं तो ये देख लें कि कहीं दूसरों को आने-जाने में दिक्कत तो नहीं हो रही है.
फ़ास्ट-फ़ूड स्टाॅल पर तो हम ऐसे लटके होते हैं कि थोड़ी ही दूर से भी पता ही नहीं चलता कि कहाँ पर क्या मिल रहा है. फ्रूट-चाट लेने जा रहे हैं और पहुँच गए गोल गप्पे की स्टाॅल पर. पता कैसे चलेगा! सब लोग तो घेरे खड़े हैं. आदमी, औरत और बीच में बच्चे सब गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं. फिर पार्टी में आये हैं इसलिए अपनी रेपुटेशन का भी ख्याल रखना है. प्लेट लेकर बड़े ही अदब से बच-बचकर चल रहे हैं. आड़े-तिरछे हो-होकर निकल रहे हैं.
कहीं किसी महिला, युवती को टक्कर न लग जाये. बच्चों को तो हम खुला छोड़ देते हैं. जिन्हे ये ही नहीं पता होता कि उन्हें ठीक से भूख भी लगी है और यदि लगी है तो कितनी लगी है. हम उन्हें पार्टी में छोड़ देते हैं. थोड़ा-बहुत फेंक भी दिया तो हमारा क्या, अमूमन यही रवैया होता है. फिर शहरी तरीका भी गज़ब है. प्लेट पूरी भर लो और खड़े होकर खाओ. पानी है ही नहीं. थोड़ा भी हिले-डुले तो पार्टी-वियर का सत्यानाश. फिर बचाते रहो अपनी लाज और करते रहो दूसरे को ब्लेम.
मैरिज पैलेसेज में तो अच्छी-खासी जगह होती है, लेकिन सभी क़े लिए कुर्सी-मेज पर भोजन का रिवाज नहीं है. नीचे बैठ नहीं सकते. ये शहरीकरण क़े खिलाफ है और न ही भोजन को परोसने का ही रिवाज है. शायद यही अब शहरी और ग्रामीण सभ्यता हो चली है. जगह-२ डस्टबिन रखे होने के बाद भी चारों ओर कूड़ा बिखरा देख सकते हैं. सभ्य लोगों को टिश्यू पेपर, प्लास्टिक कटोरियों, गिलास आदि को खड़े-२ वहीं कहीं किनारे ही फेंकते देख सकते हैं.
भोजन के लिए अब लाइन लगाने का चलन चल पड़ा है, लेकिन हम कहां मानने वाले हैं. बीच में कहीं भी घुसकर हम अपनी सभ्यता दिखा ही देते हैं. पीछे वालों को तो कई बार लगता है कि अरे भई ये लाइन आगे क्यों नहीं बढ़ रही है. झाँकने पर पता चलता है कि बीच में लाइन-तुड़वा लोगों की तादाद ही बहुत है. लगता है कि अरे यार बेकार ही हम लाइन में खड़े हैं. एक और मुख्यबात, जिस भी दावत में जाते हैं, वह किसी प्रयोजन हेतु ही दी गयी होती है. ज्यादातर लोगों को इससे कोई मतलब ही नहीं होता. मेज़बान अपने रस्मों-रिवाज में लगे होते हैं और मेहमान उपरोक्त वर्णित कार्यों में. ज्यादातर मेहमानों को मेज़बान के रस्मों-रिवाज से कोई लेना-देना नहीं होता.
दावतों में भोजन कराने का सही सलीका ग्रामीण क्षेत्रों में पहले देखने में आता था. जिसमें पंक्ति में मेहमानों को बैठाया जाता था, फिर उनके हाथ धुलवाए जाते थे. प्लेटें दी जाती थीं. फिर एक-एक पकवान पूछ-पूछकर क्या और कितना के रूप में परोसा जाता था. दूर से ही हर व्यक्ति की प्लेट दिखती थी. कुछ भी कम होने या मांगने के इशारे मात्र से सम्बंधित व्यक्ति तुरंत पहुँच जाता था. खाने के साथ ही पानी का ग्लास भी होता था.
अवशेषों को अपने स्थान पर ही रखा जाता था, जिसे बाद में एक व्यक्ति उठाकर एक निश्चित स्थान पर ले जाता था. प्लेट और ग्लास ऐसे होते थे, जिन्हे धोकर दोबारा इस्तेमाल किया जाता था. तो कूड़े के रूप में खाने के चंद अवशेष ही निकलते थे, जो बाहर ही कुत्ते आदि जानवरों का भोजन बन जाया करते थे. वह होती थी दावत. वह होता था भोजन को सम्मान. वह होता था भोजन खिलाने और खाने का सलीका. जिसे आज हमने भुला दिया है. हाँ, धार्मिक स्थानों में भोजन कराने के तरीके आज भी उचित हैं. जहाँ वैसे ही पंक्तियों में लोगों को बैठाकर पूछ-पूछकर सम्बंधित व्यक्ति भोजन परोसते हैं.
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