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एक प्रभुत्व संपन्न और आजाद गणतंत्र या फिर …
काफी मशक्कत के बाद आज़ादी मिली. फिर 26 जनवरी, 1950 के दिन भारत के संविधान को लागू किया गया। आने वाली २६ तारिख को भारत अपने गणतांत्रिक होने की 63वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से एक पवित्र किताब माने जाने वाले संविधान में यूं तो समानता के अधिकार को मुखर रूप में अंकित किया गया है लेकिन इसका उपयोग कभी कोई नहीं कर पाया। आखिर क्या कारन हैं इसके पीछे ? विश्व स्तर पर हम आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में आते हैं. हां, कुछ से बेहतर स्थति में हैं, ये बात दीगर है. देश की सुरक्षा के मामले में हम पर तलवार सदैव लटकी ही रहती है. चीन तो आये दिन हमें आँखें दिखाता ही रहता है. उधर पाकिस्तान ने तो बंटवारे के समय से ही भारत को मानों अपनी आँखों में बसा लिया हो. भारत से दुश्मनी निकलने के लिए उसने जिन्हें शय दिया आज वही उसके खून के प्यासे ज्यादा हैं. वह अपनी स्थिति के लिए एक प्रकार से खुद ही जिम्मेदार है लेकिन अफ़सोस कि हम खामखाह भुक्तभोगी बन रहे हैं. लेकिन ज्यादा अफ़सोस इस बात का है कि कोई लगातार हमारी नाक में ऊँगली कर रहा है और हम शांति तथा उदारता कि बात करके चुप हो जाते हैं. पिछले दिनों हमारे सैनिको के साथ हुयी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही किसी भी सूरत में बर्दास्त करने लायक नहीं है लेकिन फिर भी ….. नीति नियंताओं के आगे सारा देश बेबश है. आंतरिक स्थिति के मोर्चे पर भी सुकून नहीं हैं. समस्याएं, परेशानियाँ तो हर जगह हैं लेकिन वहां कम से कम उनसे लड़ने और उन्हें दूर करने कि दृढ इच्छाशक्ति तो है. हमारे देश में हो-हल्ला ज्यादा दीखता है और हल कम. नीति-नियंता, व्यवस्थापक अपने मोर्चे ही ज्यादा संभाले दिखाई देते हैं. मुद्दे कि बात ये है कि एक और तो नागरिकों कि जिम्मेदारी लेते हैं लेकिन दूसरी और उनका शोषण भी करते हैं. ५ सालों के राज को ये कभी न ख़त्म होने वाला समझ बैठते है. अशिक्षा, नैतिकता का ह्रास, बेरोजगारी, आंतरिक असुरक्षा, असमानता, गरीबी-अमीरी कि बढती खाई, बलात्कार जैसे घ्रणित कृत्य पर कोई लगाम लगती नहीं दिखती हैं. बलात्कार के लिए आज भी अधिकतम उम्रकैद कि सजा तक कि बात कि जा रही है, लेकिन पीडिता जिन्दा लाश ही अधिक बन जाती है. बलात्कारी को मौत कि सजा या फिर अधिकतम दर्द देने वाली सजा पर बात करने से हम आज भी कतरा रहे हैं. २ दिन बाद दिल्ली कि बलात्कार कि घटना को एक महिना १० दिन हो जायेंगे, लेकिन अभी केवल सुनवाई चल रही है. अदालत कि कार्यवाही के साथ ही करीब ६ सौ पन्नों कि रिपोर्ट और ८० हजार सुझावों पर अभी विचार किया जाना बाकि है. परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं. देश कि राजनीती में हलचल मची रहती है. पार्टियों के तो क्या कहने. धर्म और जाती के नाम पर रोटियां बदस्तूर सेकी जा रही हैं. उधर सरकार ने एक नया फार्मूला इजाद कर लिया है- जनता के साथ छुपन-छुपाई खेलने का. पहले दाम बढ़ा देना फिर घटा कर सहानुभूति ले लेना. पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और रसोई गैस पर यही हो रहा है. जिन लोगों ने मूर्ख बन फैसले को निश्चित मान लिया था वे ठगे गए और ६ सिलेंडरों के बाद ७वे पर दोहरे रगड़े गए. बाद में स्कीम में थोडा चेंज. सत्ता में जहर है तो भला उससे चिपकने को किसने कहा ? दूर रहना चाहिए न. लेकिन ……. बहुत ज्यादा कानून बनाने से बेहतर है की जो हैं उन्ही का सही ढंग से पालन करवाया जाये. प्रकृति भी संतुलन से ही चलती है. फिर हम संतुलन बनाने से परहेज क्यों करते हैं? देश के भीतर मौजूद कानूनों के साथ ही संतुलित और समभाव होकर उनका पालन किया जाये तो उम्मीद की जा सकती है की ये गणतंत्र कुछ समय में अपना हुलिया बदल लेगा अन्यथा हम एक प्रभुत्व संपन्न और आजाद गणतंत्र हैं या फिर ….. ये प्रश्न यूं ही चलता रहेगा. कुछ सवाल तो ऐसे होते हैं जिनके जवाब होते ही नहीं लेकिन कुछ के होते हैं और हम उन्हें खोजना ही नहीं चाहते. एक नए साल की शुरुआत है और गणतंत्र दिवस की बेला भी लेकिन गणतंत्र दिवस की मुबारकबाद देते हुए पता नहीं क्यों उस खुशी का अनुभव नहीं हो रहा है, जिसकी की मन में एक चाह छिपी हुयी है…….
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