बचपन में तो तुम होशियार थे, अब पता नहीं… (लघु कथा)
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जब वो छोटा था, तब उन सभी लोगों को उससे बहुत लगाव था. उम्र में कम और एक किशोर होने के बावजूद उसकी समझदारी की सभी बहुत तारीफ किया करते थे. सीधा-साधा, समझदार और सभी का कहना मानने वाला था वो. पिताजी स्वर्ग सिधार गए तो अपनी माता की ऊँगली पकड़कर वह सभी जरुरी काम निबटा लिया करता था. उसकी अगुवाई के कारन ही सभी उसकी मदद भी कर देते थे. रास्ता दिखाकर आगे भी चलने वाले काम ही होते हैं. लेकिन उस समय उसका सौभाग्य था की उसे चंद लोग ऐसे भी मिल गए थे, जो उसकी मदद की खातिर उसे रास्ता भी दिखाते और जरुरत पर आगे भी चलते थे. ऐसे ही कुछ लोगों से उसके पारिवारिक सम्बन्ध भी हो गए थे. समय बीतता गया और उस समय के साथ बहुत कुछ नया पुराना हो गया था, बहुत सी बातें नयी हो गयी थी. परिस्थितिया भी बदल चुकी थीं. समय के साथ ही लोगों का साथ भी बदल चुका था. कुछ कहीं तो कुछ कहीं जा चुके थे. शेष थी तो उनकी यादें और कभी-२ कुछ पलों की मुलाकातें. एक लम्बे अरसे के बाद छोटी सी मुलाकात बहुत अच्छी लगती है. संक्षेप में बहुत सी बातें हो जाती हैं. ऐसे ही एक दिन उसी पुराने समय के उसके एक अंकल का आना हुआ. फ़ोन से खबर पहुंची और पता चला कि अंकल तो बहुत जल्दी में हैं, लेकिन तुमसे मिलना चाहते हैं, तो तुरंत दर्शन करने पहुँच गया. अभिवादन कर बहुत ख़ुशी हुयी. चाय-पानी हो चुका था. बस विदाई की तैयारी थी. अंकल ने कुछ अपने और कुछ उसके गम साझा किये. और चलने के लिए तैयार हो गए. चलते-२ बेटा… देखो तुम बड़े हो… तुम्हारी माता जी ने बहुत मुशीबतें उठा कर तुम लोगों को पाला है. अब तुम्हारी जिम्मेदारी बनती है कि तुम इन सबकी देखभाल करों. “बचपन में तो तुम होशियार थे, अब पता नहीं…” कहकर अंकल तो अपने रास्ते हो गए. लेकिन उसके मन में एक सवाल छोड़ गए… “बचपन में तो तुम होशियार थे, अब पता नहीं…” आज भी वह सोचता रहता है कि जब बचपन में वह होशियार था तो अब ………?????????
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