गाँव और अपनों से बहुत दूर वह अपने परिवार के साथ शहर में रहती थी. अचानक पति बीमार पड़ गया. और एक दिन उसका देहांत हो गया. गाँव वाली, अनपढ़, गंवार होते हुए भी उसके छोटे-२ बच्चो का मुंह देखकर और उसके उसी शहर में दूर के रिश्तेदार की सिफारिश पर उत्तराधिकार की नौकरी, ये दिलासा देते हुए दिला दी गयी, की डरने की बात नहीं है. सभी तुम्हारे साथ हैं. समय सब ठीक कर देता है. धीरे-२ समय बीतने के साथ पति के चले जाने का दुःख और उसके जख्म भरने लगे थे. बच्चो की परवरिश का जो सवाल था. साल में एक बार ही सही गाँव जाकर सबसे मिल आने का सपना जरुर रहता था. लेकिन बिना पति के दूर का सफ़र ? एक-दो बार तो दूर के रिश्तेदार के साथ ही वह अपने गाँव जा पाई थी. एक प्रकार से उनके एहसान तो थे ही. जिसे वह स्वीकारती थी. और मौके-अवसर पर अपनी जी-जान से उनकी खूब सेवा-सुश्रुषा भी करती थी. मेजबानी में पूरा जी-जान लगा देना उसने अपने गाँव-अपने घर से ही सीखा था, जहाँ अक्सर बच्चो को अनावश्यक रूप से बहुत सी चीजे इसलिए खाने से रोक दिया जाता है- रख दे बेटा/बेटी, कहीं कोई मेहमान आ गया तो…. एक साल बच्चो के इम्तिहान ख़त्म होने पर फिर वह उन्ही दूर के रिश्तेदार के साथ अपने गाँव गयी हुए थी. और अचानक किसी कार्यक्रम की रूपरेखा खींच गयी. पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं था. सोचा क्यों न उन्हीं दूर के रिश्तेदार से ही कम पड़ रहे थोड़े से रूपये उधार ले लूं. वापस जाकर तो चुका ही दूंगी. कोने में धीरे से कहते हुए- “भाई साहब, कुछ रूपए आप दे देते तो….”. वो चिटक कर बोले- “क्या यहाँ भीख मांगने आई थी….??” उसका चेहरा फीका पड़ गया. उसने ऐसे उत्तर की तो कल्पना भी नहीं की थी. फिर, आखिर वो इतने नाराज़ क्यों हो गए. खैर उनकी नराजगी पर हाथ वापस खींच लिए. काम तो ऊपर वाला चला ही देता है. खुले हाथ न सही-तंग हाथ ही सही. लेकिन आज अपने भरे-पूरे परिवार, नाते/नाती-पोतों/पोतिओं के बीच भी अक्सर उसे उन भाई साहब की वो बात याद आ जाती है. “क्या यहाँ भीख मांगने आई थी….??” वह आज भी सोचती है कि क्या वह भिखारी थी….
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