मानुष अपने परिवार के साथ अलग रहने लगा. एक बार माँ-बाप, भाई-बहन का साथ छूटा तो फिर बस राम-सलाम तक ही सीमित हो गया. औरत के अनेक रूप होते हैं लेकिन माँ तो माँ ही होती हैं. इसका ये मतलब नहीं कि माँ के सिवाय औरत के दूसरे रूप कम महत्त्व के हो जाते हैं. लेकिन क्या औरत का सर्वोत्तम रूप माँ ही नहीं है. मानुष ने सोचा भी नहीं था कि परिस्थितियां ऐसी हो जाएँगी कि नयी शाखाएं आ जाने पर पुरानों को छोड़ना पड़ेगा. वह किसी को दोष नहीं देना चाहता है. वह यह भी सोचता है कि क्या मालूम समय और परिस्थिति के अनुसार वर्तमान ही उसके लिए बेहतर हो. लेकिन माँ से बिछड़ने की पीड़ा क्या शब्दों में बयां हो सकती है. खैर पहले तो मानुष ४-६ दिन में घर हो आता था. उसका चेहरा देख माँ का मन भी थोडा सा तो हल्का हो ही जाता था. लेकिन कभी-कभी मानुष के न चाहते हुए भी १०-१५ दिन गुजर जाते थे. माँ से मुलाकात को वह भी तरसता और माँ भी उससे मिलने को. उधर माँ चाहते हुए भी न तो खुद जा पाती थी, और न फोन ही कर पाती थी. बस अन्दर-ही-अन्दर तड़पती जरुर रहती. और फिर एक बार मानुष जब १०-१५ दिनों में घर गया तो माँ से रहा न गया और खाना देते हुए माँ ने कहा- खा ले बेटा, खा ले… अब तो तू मेहमान हो गया है….. मानुष अवाक रह गया, वह सन्न रह गया. उसका अंतर्मन भीतर तक कौंध चुका था. मानुष के पास कोई उत्तर न था माँ की बात का. सर नीचे करके खाना तो मानुष ने खा लिया लेकिन माँ के शब्द उसके कानों में गूंजते रहे. आज भी मानुष के कानों में माँ की वह बात उस दिन की ही भांति गूंजती रहती है… बेटा अब तो तू मेहमान हो गया है…
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