काफी इंतजार के बाद आखिर दीवाली आ ही गयी. मानव मन होता ही चंचल है. इसे शायद ही कभी संतुष्टि होती हो. जो नहीं मिला, उसका इंतजार रहता है. जो मिल गया, वह कमतर लगता है. और भी यूं ही….. त्योहारों की बात करें तो यहाँ भी कुछ ऐसा ही देखने में आता है. जो त्यौहार नहीं आता, उसका इंतजार रहता ही है. करीब महिना भर पहले से तो रहने लगता ही है. इसी क्रम में दीवाली के त्यौहार को भी देखा जाना चाहिए. लीजिये दीवाली भी आ ही गयी. पहले तो यही की दीपावली से ये अब सामान्य रूप से दीवाली कर दी गयी है. किसे-२ समझाया जाये और कैसे. खैर. दीवाली का ही नहीं अपितु करीब-२ हर त्यौहार अपने असल उद्देश्य से परे हो चले हैं. दीवाली की बात करें तो इसकी शुरुआत जिस प्रकार और जैसे या जिस उद्देश्य के साथ हुयी थी, वह अब काफी हद तक नदारद लगती है. बाज़ार सबसे ज्यादा हावी है. कुछ लोग बाज़ार को ही त्योहारों का पालनहार समझने लगे हैं. यदि ये कहा जाये की बाज़ार ही हमारे त्योहारों को हमसे ज्यादा बेहतर तरीके से मना रहे हैं. तो कुछ गलत न होगा. हालाँकि इसमें उनका निहितार्थ ही अधिक होता है. बाज़ार का काम तो होता ही ये है. जिन मौकों पर लोग आपे से बाहर हो जाएँ, उनको भुना लो, यही तो बाज़ार का काम है. त्यौहार और इस प्रकार के अवसर खासे काम आते हैं. अब तो ट्रेंड इतना बदल गया है कि पूछिये मत. हर कोई दीवाली कि मुबारकबाद दे रहा है लेकिन पीछे से अपने निहितार्थों कि पूरी पोथी भी बनाये खड़ा है. बाज़ार लोगों को सब्जबाग दिखाकर तरह-२ के प्रलोभन देता है और सामान्य से ज्यादा कमाता है. ऊपर से साल भर का घटिया सामान भी इसी बहाने निकाल लेता है. सरकार देशवाशियों को दीवाली कि बधाई देती है लेकिन राहत देने की बात नहीं करती. मंहगाई बढ़ गयी है, सिलेंडर, तेल पर घमासान मचा हुआ है. काले धन पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों खामोश हैं. केजरीवाल खुलासे कर रहे है. कोई उनसे खुश है तो कोई नाखुश. ख़ुशी वाले उनके साथ हैं तो नाखुशी वाले उन्हें तरह-२ की उपाधिया दे रहे हैं. राजनीती अपने खेल खेलती ही रहती है. कोई प्रचार कर रहा है, कोई प्रसार. कोई उद्घाटन कर रहा है, कोई शिलान्यास. कोई बैठे-२ मुसीबत मोल ले रहा है और विवादित बयानों से घिर रहा है. कोई इसे पब्लिसिटी स्टंट मानता है तो कोई इसे पागलपन कहता है. एक बात समझ में नहीं आती की जिन महापुरुषों ने मानवता की भलाई के लिए समय-२ पर अवतार लिया और हमारे लिए उदहारण छोड़ा, हमें सीख दीं, हम उनके बारे में भी अपने कुविचार रखने से बाज़ क्यों नहीं आते. जबकि हमें उनके सद्चिन्हों पर चलना होता है. टीका-टिपण्णी तो हमें अपनी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं पर करनी चाहिए. हम अपनी समीक्षा छोड़ उनके पीछे दौड़ने लगते हैं. दीवाली पर पटाखा चलाना मानों जरुरी है. जबकि ऐसा है ही नहीं. बाज़ार की कमाई होती है. पर्यावरण वाले इसके लिए मना करते हैं. बड़े समझ रहे है लेकिन मजबूर है, बच्चे जिद्दी होते हैं. दिल तो रखना ही पड़ेगा. लेकिन कुछ ज्यादा और महंगे पटाखे फोड़ कर अपनी शान भी बघारते हैं. अब तो ख़ुशी के विभिन्न अवसरों पर पटाखा चलाना मानों जरुरी हो गया हैं. खैर ये सब तो ऐसा लगता है कि चलता ही रहेगा. दीपों के इस पावन त्यौहार पर, जो कि बस आ ही गया है, इन तमाम प्रकार की बातों को एक किनारे रख इसका आनंद लिया जाना चाहिए. इसकी रौशनी में अपने आज और आने वाले कल को रोशन करने की शुभ-कामना करनी चाहिए. कोशिश करें कि इस शुभ-अवसर पर आपसी बैर-भावों, मतभेदों को भुलाकर इसकी रौशनी में नहा जाये. दीपों की ये पावन रौशनी हमारे, आपके और पूरे समाज, देश और दुनिया की तमाम समस्याओं को स्वाहा करे, सभी के जीवन में रौशनी लाये, इसी शुभ कामना के साथ जागरण जंक्सन मंच, इसके सभी सदस्यों और पाठकों को अत्यंत रोशन दीपावली की ढेरों शुभ-कामनायें ….
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