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लम्बी रेस का घोड़ा … (लघु कथा)

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करमू ने सुना था कि लम्बी रेस का घोड़ा वही होता है, जो रेस जीतने के साथ ही अगली दौड़ के लिए अपनी ऊर्जा को दोगुना कर ले. न कि रेस तो जीते लेकिन हांफ जाये. खैर रेस जीत कर हांफ जाना तो भी समझ में आता है लेकिन करमू के मोहल्ले में ही रहने वाला परमू था तो करमू से छोटा लेकिन उसके हाव-भाव उसकी उम्र से मेल नहीं खाते थे. वह अतिविश्वास का मारा हुआ था. अपनी योग्यता और अनुभव के कमतर होने के बाद भी वह बातों का धनी था. किसी को भी अपनी बातों से रिझा लेना उसके बाये हाथ का खेल था. रोजगार की तलाश में दोनों शहर गए. वहां एक ठेकेदार के पास दोनों मजदूरी करने लग गए. देखते ही देखते अपनी बातों से परमू ने ठेकेदार का दिल जीत लिया. धीरे-२ वह ठेकेदार को सलाह भी देने लग गया. ठेकेदार भी उसकी सलाह मानने लगा और अपना फायदा देख खुश होने लगा. नाराज होने वाली कोई भी बात परमू ठेकेदार से नहीं करता था. भले ही वह सच और जरुरी क्यों न हो. परमू अब ठेकेदार के करीब हो गया था. लेकिन करमू और मजदूरों की ही तरह अपने काम से काम रखता और परमू को भी देखता. ठेकेदार बाकियों को परमू की बात मानने को भी कहता. धीरे-२ परमू अहंकार से ग्रषित हो गया. उसने ये तक कह दिया की ठेकेदार से मेरा तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं……. लेकिन तुम लोगों का बहुत कुछ बिगड़ सकता है. कई लोग तो सकते में आ गए लेकिन कई समय के पहिये के घूमने का इंतजार कर रहे थे. ठेकेदार को तो दमड़ी से प्रेम था, चमड़ी से नहीं. और मक्खन पालिश ज्यादा देर तक काम नहीं आती. काम आती है तो मेहनत और इमानदारी ही. ठेकेदार ने लालच दे-दे कर, मीठी-२ बाते कर कर के परमू से खूब काम लिया. कोई ड्यूटी टाइम नहीं, कोई अतिरिक पारिश्रमिक नहीं. बस एक लालच कि परमू एक दिन तुझे मै इतना दे दूंगा कि तू सोच भी नहीं सकता. परमू को रात-दिन वही सपने आते. वह अन्य साथियों के बीच खूब इतराता भी था. धीरे-२ ठेकेदार ने जब ठीक-ठाक पैसे कमा लिए, और ज्यादा के चक्कर में रहे परमू को एक दिन इस्तेमाल करके छोड़ दिया. उस दिन परमू को असली लम्बी रेस के घोड़े के बारे में पता चला.

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