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हम तो गुलाम हैं…

Proud To Be An Indian
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हम तो गुलाम हैं!! जी हां, यही शब्द थे उनके. चंद रोज पहले की बात है, शाम का समय था, नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर हम तीन-चार लोग चाय की चुस्की लेने के लिए बैठे थे. चाय वाले को बढ़िया गरमा-गर्म चाय का आदेश दे हम गप्पबाजी में लग गए. अक्सर खाली समय में या फिर टाईम पास के लिए हम गप्पबाजी ही करते हैं. अमूमन तो गप्पबाजी से कोई लाभ नहीं होता है लेकिन कभी-२ इससे काफी कुछ सीखने को मिल जाता है. ऐसा तब होता है, जब चौकड़ी में एक-आध बुद्धिजीवी भी शामिल हो. उस दिन ऐसा ही हुआ. चौकड़ी में एक जनाब इतिहास के प्राचार्य थे. डाक्टरेट हैं. बकौल उनके, वे जितनी उम्र के दीखते हैं, उतनी उम्र है नहीं. मतलब पढ़ते-२ सर के काफी बाल तो उड़ चुके हैं, और बचे हुए समय से पूर्व ही सफ़ेद हो चुके हैं. हमारे यहाँ रिक्शे वाला भी खाली समय में गप्प लड़ता हैं, और विदेशी रिक्शे वाला खाली समय में अखबार पढता है. यही कारण है कि वे हमसे विकास में आगे हैं. खैर गप्प का दौर चल रहा था. एक महाशय को फिल्म चोरी-चोरी, चुपके-चुपके की याद आ गयी. जब धर्मेद्र पा जी ओम प्रकाश से अंग्रेजी सीखने की बात करते हैं और पूछते हैं कि सायिकोलौजी को पसायिकोलौजी क्यों नहीं पढ़ते हैं ? अंग्रेजी व्याकरण के अनुसार इसमें पी सायलेंट है. तभी मैंने चौकड़ी में शामिल प्राचार्य महोदय से पूछ लिया की सर सायलेंट करेक्टर को रखना जरूरी था क्या ? जब उसका उच्चारण नहीं किया जाता है तब फिर उसे लिखने में क्यों इस्तेमाल किया गया ? मैंने जोड़ा की शायदा सायिकोलौजी शब्द जब बना होगा तब उसकी स्पेल्लिंग में p लिखा गया होगा. लेकिन जब उसका उच्चारण किया गया तो कठिनाई के सामने आने के कारण ही संभवतः उसे सायलेंट कर दिया गया होगा. तो क्या हम अपनी सुविधा के लिए ऐसी चीजों में संसोधन नहीं कर सकते ? प्राचार्य हँसते हुए बोले… हम तो गुलाम हैं… हम भला संसोधन कैसे कर सकते हैं ? भिन्डी खाने का मन हो रहा हो और घर में बीवी ने कद्दू बना रखा हो, तो हम तो वहां भी संशोधन नहीं कर सकते और कद्दू ही खाना पड़ता है ! उन्होंने जोड़ते हुए आगे कहा- हमारी तो मानसिकता ही गुलामों वाली हो गयी है. दुसरे की दी हुयी चीज हमारे मतलब की है या नहीं, हम ये नहीं देखते. बस ! उसका इस्तेमाल करते रहते हैं. पहले तो हम उनके कद्दू और भिन्डी वाले उदहारण पर खूब ठहाका लगाकर हँसे और फिर हमारी चौकड़ी में बात आई गयी कर दी गयी. लेकिन मै सोचता रहा कि एक डाक्टरेट प्राचार्य भी इस बात को मानता है कि हमारी मानसिकता गुलामों वाली हो गयी है. शायद इस देश कि विडम्बना ही ऐसी है कि हमसे गुलामी छोड़ी नहीं जाती. कहने को तो हम आज़ाद हैं, लेकिन बहुत सी बातों में हम आज भी गुलाम ही हैं. आखिर क्यों हमसे गुलामी छोड़ी नहीं जाती ?

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