नक़ल यानि हु-ब-हू किसी का अनुसरण कर लेना. परीक्षाओं का समय चल रहा है. जिस तेजी से शिक्षा का विस्तारीकरण हो रहा है, उसके मद्देनज़र तो वर्ष-पर्यंत परीक्षाएं होती ही रहती हैं. लेकिन सामान्यतः मार्च से मई के तीन महीनों को मुख्य कहा जा सकता है. हम परीक्षाओं में नक़ल की बात कर रहे हैं, कि आखिर नक़ल के क्या कारण हैं ? परीक्षार्थी आखिर नक़ल का सहारा क्यों लेते हैं ? उसके दुष्परिणाम क्या हैं और इस समस्या का निवारण कैसे हो सकता है ?
———————— परीक्षाएं हमारी वर्ष भर की गयी पढाई का मूल्याङ्कन होती हैं. वर्ष भर में शिक्षार्थी को कक्षाओं में अद्ध्यापकों और पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से वह सभी कुछ बताया और समझाया जाता है, जिसकी वह शिक्षा ले रहा है लेकिन वह कितना समझ पाया है और उसको किस श्रेणी में रखना चाहिए, इसी का मूल्याङ्कन करने के लिए परीक्षा का आयोजन किया जाता है. हम सामाजिक प्राणी हैं और सभी कार्यों को कोई अकेला तो कर नहीं सकता. भिन्न-२ कार्यों के लिए भिन्न-२ व्यक्तियों की जरुरत होती है और भिन्न-२ व्यक्तियों की योग्यता भी भिन्न-२ होती है. यही जांचने-परखने के लिए हमें परीक्षा पद्दति का सहारा लेना पड़ता है. आखिर नैतिक मूल्यों के आधार पर कितने लोग स्वयं को अयोग्य घोषित करेंगे ?
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परीक्षायों में नक़ल का कारण तो एक ही है की स्वयं को बेहतर साबित करना, वह भी बिना मेहनत के. इसका दुष्परिणाम यह होता है कि परीक्षा में तो आप नक़ल करके स्वयं को योग्य साबित कर देते हैं लेकिन वास्तव में तो आप अयोग्य ही हैं. फिर आगे चलकर जीवन के जिस भी फिल्ड में आप अपने उस मूल्याङ्कन के आधार पर चयनित होंगे, वहां आप खरे नहीं उतर पाएंगे. परिणामस्वरुप आपके जिम्मे सौपे गए कार्य असफल होंगे, गलत होंगे. इसके साथ ही साथ आपका नैतिक मूल्य भी गिरेगा और आप अपने पद का दुरूपयोग करेंगे.
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हमारे समाज में दो प्रकार के लोग हैं. एक वे जो नक़ल को गलत मानते हैं और कहते हैं की नक़ल बंद होनी चाहिए. इससे अयोग्य लोग परीक्षा के माद्ध्यम से छंट जायेंगे और योग्य लोग ही सही श्रेणी और पद के हक़दार होंगे. नक़ल को गलत मानने वाले लोग कहते हैं कि यदि समय रहते नक़ल पर रोक नहीं लग पायी तो भविष्य में अच्छे और योग्य लोगों का सड़क पर निकलना तक दूभर हो जायेगा. क्योंकि नक़ल की सहायता से स्वयं को योग्य कहलवाने वाले लोग किसी तरह से परीक्षाओं में पास तो हो जाया करेंगे लेकिन प्रतिस्पर्धा के कारण वे स्वयं को किसी स्तर पर नहीं पाएंगे. परिणामस्वरुप सड़कों पर जंगल राज होगा. लूट-खसोट होगी, छीना-झपटी होगी.
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लेकिन दूसरे प्रकार के लोग, जो नक़ल को गलत नहीं मानते हैं वे कहते हैं कि हम लगातार प्रगति कर रहे हैं. क्यों ? क्योंकि हमने नक़ल किया और आज भी नक़ल कर रहे हैं. वे कहते है कि वास्तव में हम इस देश के संविधान-निर्माण से ही नक़ल करते आ रहे हैं. नक़ल करना बुरी बात नहीं है. आखिर नक़ल के लिए भी तो अक्ल चाहिए ! ठीक से नक़ल भी न कर पाना, ये बुरी बात है. यह ज्यादा दोषपूर्ण है. सोचिये ! भारत की बुनियादी बातों के बारे में. भारत एक कृषि प्रधान देश है. भारत ग्रामीण देश है. लेकिन आज कितने लोग ख़ुशी-२ खेती करना चाहते हैं ? आज कितने लोग स्वयं को ग्रामीण कहलवाना पसंद करते हैं ? असल में आज सभी बाबू बनना और शहरी कहलवना चाहते हैं और इसी ओर प्रयासरत भी हैं. ऐसे लोग कहते हैं कि जब पूरा विश्व ही नक़ल पर आधारित है तो फिर इन विदयार्थियों को नक़ल की छूट क्यों नहीं ? मैंने आपके पास एक अच्छी घडी देखी. मै क्या करूंगा ? मै भी वैसी ही घडी प्राप्त करने की कोशिश करूंगा. आपने मेरी कमीज देखी, आपको अच्छी लगी. आप क्या करेंगे ? आप भी तो उसे प्राप्त करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में क्या यह नहीं लगता है कि नक़ल करने से एक स्वस्थ स्पर्धा होगी. फिर वह बाज़ार हो या फिर परीक्षा ही क्यों नहीं. यहाँ समानता की बात की जा सकती है. इस दुनिया में ऐसा कौन है, जो नक़ल नहीं कर रहा है ? ऐसे में विद्यार्थियों को नक़ल की छूट क्यों नहीं दी जानी चाहिए ?
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असल में नक़ल को जायज ठहराने वाले स्वयं ही अपनी अयोग्यता का डंका पीट रहे हैं. आखिर आप नक़ल क्यों करना चाहते हैं ? जाहीर है क्योंकि बिना नक़ल के आप वह सब कुछ नहीं कर सकते. दूसरे की हू-ब-हू घडी और और कमीज पा लेने की होड़ में किया गया अनुसरण परीक्षाओं में किये गए नक़ल से अलग है. किसी के जैसा बन जाने पर भी आप अनुसरनकर्ता ही होते हैं. आप उसके जैसा हो गए, लेकिन वह नहीं हुए. इसमें अंतर है. इसे समझना होगा. यही कारण है कि सदैव नक़ल को रोकने और नकलचियों को दण्डित करने की प्रथा रही है. हमें समझना होगा कि साल भर पुस्तकों के अध्ययन के बाद भी हम उन्ही अद्ध्याओं में से पूछे गए चंद प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पा रहे है तो कहीं न कहीं हमारे अध्ययन में ही कमी रही है. और यदि आपने पूरी मेहनत की है, फिर भी पास नहीं हुए हैं, तो इसका आशय है कि आपके अन्दर वह काबिलियत नहीं है, जिसकी दरकार है. अतः आपको वह करना चाहिए, जिसकी आपमें काबिलियत है. इसका हल नक़ल कदापि नहीं है. यह इस सृष्टि का नियम भी है की सभी में एक जैसी काबिलियत नहीं होगी. सृष्टि के सञ्चालन के लिए उसने स्वयं उसमे विविधता का समावेश किया हुआ है. इसको समझने की जरुरत है.
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हाँ, हमारी शिक्षा और परीक्षा पद्दति को भी पूर्ण रूप से दोषमुक्त करार नहीं दिया जा सकता है. एक ही देश में दोहरी शिक्षा पद्दति अपने-आप में समाज के दो अलग-२ रूप तैयार करने में पूरी जोर आजमाईश करती दिखाई दे रही है. एक साहबों की कतार बना रही है तो दूसरी पढ़े-लिखे बेरोजगारों की. देश एक है तो शिक्षा पद्दति दोहरी क्यों? उसी प्रकार बहुत से शिक्षार्थी ऐसे होते हैं, जो वास्तव में तो योग्य होते हैं, लेकिन परीक्षा में चंद प्रश्नों के उत्तर न दे पाने के कारण वे अयोग्य हो जाते हैं ? यह ठीक नहीं है. ऐसे शिक्षार्थियों को जीवन में आगे चलकर जब लीक से हटकर उन्हें कोई तराशता है, तो उनकी योग्यता सामने आती है.
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आज बहुत से अयोग्य लोग भी योग्य पदों पर बैठे है, तो केवल नक़ल और धोखे जैसे नकारात्मक कारणों की वजह से. परिणामस्वरूप समाज में विघटन की सी स्थिति है. नेतृत्व क्षमता हो या फिर नौकरशाही, न्याय शेत्र हो या फिर मीडिया. भारतीय लोकतंत्र के लिए इन चारों स्तंभों का सफल संचालन जरुरी है. लेकिन आज हम महसूस कर रहे हैं कि हमारे देश और समाज में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है. नक़ल और दोषपूर्ण शिक्षा और परीक्षा पद्दति के कारण हमारे समाज में हम नैतिक मूल्यों से रहित केवल और केवल पैसा बनाने वाली मशीनों का निर्माण कर रहे हैं, जो आगे चलकर वैसे ही कार्यों में संलग्न हो जाते हैं. उन्हें नैतिकता से कोई सरोकार नहीं होता है. नैतिक मूल्यों से रहित मनुष्य समाज निर्माण का कार्य नहीं कर सकते.
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