रंगों के इस त्यौहार होली पर फिल्म शोले का ये गीत बरबस ही याद आता है. —————
चलो सहेली चलो सहेली चलो रे साथी चलो रे साथी ओ पकड़ो-पकड़ो रे इसे न छोडो अरे बैंया न मोड़ो ओये ठहर जा भाभी जा रे सराबी क्या हो राजा गली में आजा होली रे होली भंग की गोली ओ नखरे वाली दूँगी मैं गाली अरे रामू की साली होली रे होली
होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं गिले शिकवे भूल के दोस्तों दुश्मन भी गले मिल जाते हैं
गोरी तेरे रंग जैसा थोड़ा सा मैं रंग बना लूं आ तेरे गुलाबी गालों से थोड़ा सा गुलाल चुरा लूं जा रे जा दीवाने तू होली के बहाने तू जा रे जा दीवाने तू होली के बहाने तू छेड़ न मुझे बेशरम पूछ ले ज़माने से ऐसे ही बहाने से लिए और दिए दिल जाते हैं होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं
हो हो हो हो हो हो
यही तेरी मर्ज़ी है तो अच्छा चल तू खुश हो ले पास आ के छूना ना मुझे चाहे मुझे दूर से भिगो ले हीरे की कानी है तू मट्टी से बनी है तू हीरे की कानी है तू मट्टी से बनी है तू छूने से जो टूट जायेगी काँटों के छूने से फूलों से नाज़ुक-नाज़ुक बदन छिल जाते हैं होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं गिले शिकवे भूल के दोस्तों दुश्मन भी गले मिल जाते हैं होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं
———– होली हो या फिर कोई अन्य त्यौहार, हमारे देश में उनका वास्तविक और पारंपरिक रूप बिगड़ता ही जा रहा है. “मै तो होली के दिन घर के अन्दर ही रहूँगा” का वाक्य अब सुनने में आम हो चुका है. होली को पारंपरिक और बड़े ही सद्भावनापूर तरीके से मनाये जाने में जो कमी आ रही है, वह चिंता का विषय है. बहुत से लोगों को सिवाय हुल्लड्बाजी के, इसके गहन सन्देश से कुछ लेना देना नहीं होता. बाजार कमाई करने में व्यस्त है. एक बार एक मित्र ने जिक्र करते हुए बताया था की होली की दिन उसका मूड ही ख़राब हो गया. कारन पूछने पर पता चला कि जिन दोस्तों को उसने होली मिलने के लिए अपने घर बुलाया था, उनमे से एक दौड़-२ कर उसकी पत्नी को ही रंग लगाने कि कोशिश कर रहा था, जो कि उसे बहुत बुरा लगा.. बात भी सही है. वैसे तो भाभी जी, लेकिन …. भला किसे बुरा नहीं लगेगा. शरारत तक तो ठीक है लेकिन… ऊपर से हमारी औपचारिकतायें ! मेले मनोरंजन का साधन होती हैं. साथ ही हमारी परम्परा और रीति-रिवाजों का द्योतक भी. लेकिन प्रशासन मेलों से कमाई करने की आड़ में दूर-दराज से आये मेला लगाने वालों की खैर भी नहीं पूछती. कर और स्थान भाडा इतना ज्यादा होने लग गया है कि अठन्नी कमाई तो रुपय्या खर्च ! लेकिन किसे हैं इसकी परवाह. असामाजिक तत्वों द्वारा मेले अपनी निजी खुन्नस निकालने से अड्डे बनते जा रहे हैं. फिर चाहे इन मेलों के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह क्यों न लग जाये ? कानून-व्यवस्था तब जगती है, जब बहुत कुछ हो चुका होता है. ऐसे में जब अगले बरस वही मेला लगने की बारी होती है, तब ऐसा जान पड़ता है कि मेला मैदान छावनी में ही अधिक तब्दील हो चुका है. लोग मेले में आते तो हैं लेकिन धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं कुछ हो न जाये. इन सब विसंगतियों कि तरफ हमें ध्यान देने की जरुरत है. सभी त्योहर अपने वास्तविक रूप में बने रहें, इनका पूरा सम्मान हो, तभी तो पूरा आनंद आएगा.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments