अंग्रेजी संस्कृति का एक और साल बीत गया. पुराने साल की विदाई और नए साल का यह स्वागत समारोह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है. आज यदि यह कहा जाये की भारतीय संस्कृति एक प्रकार की खिचड़ी बन चुकी है, तो क्या यह गलत होगा ? आधुनिकता की होड़ में हमने बहुत-सी ऐसी बातें पश्चिमी सभ्यता से अंगीकार कर ली हैं, जिनकी कतई जरुरत नहीं थी. वैदिक भारत के दृष्टिकोण से यदि देखा जाये तो इस अंग्रेजी साल का कोई विशेष महत्त्व नहीं है. चूंकि हम में से अधिकांश भारतीय हिंदी केलेंडर को जानते ही नहीं हैं, तो उसके स्वागत और विदाई का प्रश्न ही भला कहाँ उठता है ? हाँ, कुछ हिन्दू संस्थाएं, संगठन और सरकारी हिंदी विभाग आदि अवश्य ही इसका आयोजन करते हैं, जिसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. खैर, वर्ष चाहे भारतीय संस्कृति का हो या फिर अंग्रेजी संस्कृति का, बात चाहे विदाई की हो या स्वागत ही, हमें जो काम करना चाहिए, वह हम नहीं करते हैं. एक पूरे साल की जो समीक्षात्मक चर्चा होनी चाहिए, उसका सर्वथा अभाव बना ही रहता है. साल भर के लिए जो लक्ष्य होने चाहियें, वे नहीं हैं. युवा पीढ़ी को तो मानो संगीत पर थिरकने का मौका भर चाहिए, अगले दिन फिर वही ‘ढाक के तीन पात’. हर १२ माह बाद हम क्या विदा करते हैं और किसका स्वागत करते हैं ? मनुष्य होने के नाते यदि विचारने की बात की जाये तो दो मुख्य दृष्टिकोण तो बनते ही हैं. एक व्यक्तिगत स्तर पर और दूसरा सामजिक स्तर पर. जहाँ अपने व्यक्तिगत हित और अहित के लिए हम व्यक्तिगत स्तर पर सोचते हैं, वही सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें सामाजिक विषयों पर भी विचारना चाहिए. व्यक्तिगत स्तर पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति सोचता ही है लेकिन सामाजिक स्तर पर विचारने हेतू हमें दूसरों को प्रेरित करना पड़ता है. अपना घर साफ़ करने और दूसरे से क्या लेना, की मानसिकता हम बमुश्किल त्याग पाते हैं. जब हम सामाजिकता की बात करते हैं, तो देश की बात सर्वप्रथम आती है. यहाँ वतन और वतनपरस्ती को परिभाषित करने की शायद आवश्कता नहीं हैं. हाँ, पुराने वर्ष की विदाई और नए वर्ष के स्वागत के अवसर पर वतन में घटने वाली तमाम बातों और उनके परिणामों पर विचारने की बात नहीं भूलनी चाहिए. कुछ प्रण न लिए जाने की सूरत में भी कम से कम गत वर्ष भर की घटनाओं की समीक्षा तो होनी ही चाहिए. कोई अप्रिय घटना आखिर क्यों घटी ? आगे से हम क्या प्रयास करें कि ऐसी अप्रियता न हो ? आज आज़ादी के ६ दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन वास्तवकि भारत से काले बदल छटे नहीं हैं. खेती और खेतिहर दोनों मुसीबत में हैं. खुदरा बाज़ार के साथ ही रेहड़ी-फड़ी वाले भी सुरक्षित नहीं हैं. खाद्यान्न संकट, मंहगाई, ऊर्जा जरूरतों को पूरा न होना, संसाधनों का असमान वितरण, पूर्ण रोज़गार का अभाव, विधायिका से लेकर नौकरशाही का निचला तबका तक आँख उठाकर देख नहीं पा रहा है, तो इसके निहितार्थ है. आतंकवाद का उपाय नहीं सूझ रहा है. काले धन और भ्रष्टाचार पर नीति-नियंता ‘पहले आप-पहले आप’ कर रहे हैं. संतरी से लेकर मंत्री तक जूतम-पैजार होकर भी छाती चौड़ी करके राजनीती के गलियारों में सत्ता की मलाई चाटने को बेताब दीखते हैं. कोई नेता बनकर भी तमाचे खा रहा है, तो कोई जनहित की बात करके. रातों-रात राज्यों के एक-दो नहीं चार-२ टुकड़े करने के प्रस्ताव चुटकियों में पास हो रहे हैं, तो वहीँ यह भी देखने में आता है कि अपनी धोती बचाने के मामले में समस्त राजनीतिक कुनबा एकमत हो जाता है. ऐसा नहीं है की इन ६ दशकों में इस देश में समस्याएं ही बढ़ी हैं. इस देश ने बहुत सारी तरक्की भी की है. लेकिन बात यह है की अच्छाइयों से कोई नुक्सान नहीं होता है लेकिन बुराई से सदैव नुक्सान ही होता है. ऐसे में उन्नति की चर्चा न भी हो, तो चलेगा लेकिन अवनति की चर्चा अवश्य होनी चाहिए. अच्छे स्वास्थ्य की चर्चा से हम फूलकर कुप्पा होते हैं लेकिन बुरे स्वाश्थ्य की चर्चा न करके हम मर्ज़ को पालते हैं. यह ठीक नहीं है और आज हम ज्यादातर यही कर रहे हैं. क्या हम विचारते हैं, कि यदि हम व्यक्तिगत स्तर से सुधर जाएँ और नैतिक मूल्यों को अपना लें, तो मुट्ठी भर लोग हमें बरगला नहीं सकते ? हमें नोच-खसोट नहीं सकते. हम स्वयं चोट्टे बने हुए है, और हर नए साल की पूर्व संध्या पर डी.जे. की धुन पर थिरकने के बाद सुबह होते ही हैप्पी न्यू इयर, हैप्पी न्यू इयर का राग अलापना शुरू कर देते हैं. यदि व्यक्तिगत स्तर से हमसे कोई अच्छा कार्य नहीं हो पाता है, तो कम से कम एक-एक बुराई को छोड़ने का प्रण तो प्रत्येक नव वर्ष पर ले ही सकते हैं. लेकिन हमसे वह भी होते नहीं बनता. फिर कैसी विदाई और कैसा स्वागत ? आखिर दिखावा कब तक चलेगा ? बहरहाल, इन्ही दो शब्दों के साथ… हैप्पी न्यू इयर, हैप्पी न्यू इयर…
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