दीपावली का वह पावन, धार्मिक, सांस्कृतिक व् पारंपरिक महत्त्व कहाँ है ?
Proud To Be An Indian
149 Posts
1010 Comments
हमारे देश में कोई भी पर्व हो, त्यौहार हो, सर्वप्रथम उस सृष्टि-निर्माता का स्मरण किया जाता है. दीपावली का पर्व भगवान श्रीराम के १४ वर्षों के वनवास से लौटने पर अयोध्या में दीप जलाकर स्वागत करने की धार्मिक और पारंपरिक धरोहर के रूप में है. विविधता में एकता वाली इस भारत-भूमि पर महापुरुषों के आदर्शों पर चलने और उन्हें अगली पीढ़ी को और भी सुदृढ़ रूप में हस्तांतरित करने की पावन परम्परा रही है. भारत देश जिस गंगा-जमुनी संस्कृति का वाहक है, उसमे अनेक वर्षों से विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं. अपनी-२ मान्यताओं के साथ, अपनी परम्पराओं को सहेजकर चलने की यहाँ परम्परा रही है. मुख्य पर्वों-त्योहारों में होली, दीपावली, ईद, गुरु-पर्व, क्रिसमस-दिवस जैसे त्योहारों की धार्मिक और पारंपरिक बानगी प्रतिवर्ष देखते ही बनती है. ———- भगवान श्रीराम सतयुग में अवतरित हुए थे, और आज हम जिस युग में हैं, उसमे बड़ा भारी अंतर आ गया है. आज के दिन से यदि तुलना करें तो पाएंगे कि हमारे स्वयं के बीच एक खाई बराबर अंतर आ चुका है हमारे देश के दो नाम हैं, हमारे देश में दो वर्ग हैं, हमारे देश में दो शिक्षा नीतियां हैं, हमारे देश में दो जीवन शैलियाँ हैं आदि-२. इन सभी परिवर्तनों का हमारे ऊपर इतना गहरा असर पड़ा है कि आज हम अपने तीज-त्योहारों, रीति-रिवाजों और पर्वों को उनके मूल रूप में नहीं रख पा रहे हैं. दीपावली के त्यौहार का जो धार्मिक और पारंपरिक महत्व है, उससे हम बहुत मायनों में दूर हो चुके हैं. बहुत मायनों में त्योहारों का रूप परिवर्तन हो चुका है. या यूं कहिये कि कर दिया गया है. जिसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी होनी चाहिए. ———- आज ग्रामीण भी शहरो की कुसंस्कृति की चपेट में आकर वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं. ग्रामीण हों या फिर शहरी, सभी बिजली के बल्बों की लड़ियों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके कारण पारंपरिक घी और तेल के मिटटी के दीये नदारद कर दिए गए हैं. उन मिटटी के दीयों के महत्तव से हम इंकार नहीं कर सकते. पर्यवार्नीय दृष्टि से तेल और घी के दीये लाभदायक हैं. उन मिटटी के दीयों के कारण निम्न वर्ग के बहुत से लोगों के पास रोजगार होता था, जो अब काफी मात्रा में तो समाप्त हो गया है या फी आधुनिक बाजारों में खोया-२ सा कहीं दुबका हुआ कोई ग्रामीण दूकानदार थोड़े-से दीये लेकर एक कोने में बैठा दिख जायेगा. त्यौहार पर पूजन और स्तुति से एक वर्ग विशेष तो काफी दूर ही है. घर के बड़े या बुजुर्ग ही इस कार्य में अधिक संलग्न दीखते हैं. जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. पटाखे चलाकर इस त्यौहार की ख़ुशी को कैसे बढाया जाता हैं, यह आज तक किसी के समझ में नहीं आया, फिर भी वर्षानुवर्ष से यह चला आ रहा है. अब तो प्रत्येक ख़ुशी के अवसर पर पटाखे चलाने का प्रचलन बन गया है. निश्चित ही इसमें औधोगिगारण का बहुत बड़ा हाथ है. ———- दीपावली का त्यौहार आ रहा है, यह चर्चा का विषय करीब एक माह पूर्व ही बन जाता है. क्योंकि बाजार की लोगो को दूहने की तैयारी बहुत पहले ही चल पड़ती है. वह सुनियोजित होती है. बड़े-२ दिग्गज ए.सी. आफिसों में बैठकर रणनीति बनाते हैं, कि कैसे आमजन का साल भर का बोनस अपना चवन्नी का कबाड़ बेचकर खींच लिया जाये. कैसे उसकी आँखों में आकर्षक स्कीमों की धूल झोंककर उसे अँधा बनाया जाये. ख़ास बात यह कि हम अपनी जेब कटवाने को बहुत पहले से ही बहुत अधिक उत्सुक हो उठते हैं और इसी में पावन दीपावली के त्यौहार का सुख तलाशते हैं. भौतिक सामानों से पटा बाजार भला कैसे दीपावली की खुशियों को बढ़ता है, समझ नहीं आता है. फिर भी यही क्रम चला आ रहा है. हमारे सृष्टि निर्माता, देवी-देवताओं, फरिश्तों, संतों-फकीरों, और पूर्वजों ने हमें बहुत कुछ दिया है और बहुत कुछ हमारे लिए धरोहर के रूप में छोड़ गए हैं, लेकिन हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़कर जायेंगे ? उन्हें क्या देंगे ? करोड़ों-अरबों के भौतिक सामान से पटे बाजार और उनसे भरे घर, करोड़ों के पटाखों के धुये से काला हुआ पर्यावरण, पटाखों के शोर से फटे कान, पटाखों की आग में स्वाहा हुए करोडो का धन और इन्हें बनाते-२ रोजी-रोटी की खातीर जान गंवाने वाले सैकड़ो लोग ? विचारना होगा! क्या दीपावली के उस पावन, धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्त्व को हमने कहीं पीछे तो नहीं छोड़ दिया है ? ———- बहरहाल, जागरण जंक्सन परिवार सहित सभी देशवासियो को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments