आज ‘हिंदी दिवस’ है. प्रति वर्ष हम एक औपचारिकता कर अपनी राष्ट्र भाषा को सम्मान देते है और फिर पूरे साल के लिए उसे उसी पुराने संताप में तड़पने के लिए छोड़ देते है. सरकारी शीर्ष स्थानों पर तो अंग्रेजी राज कर रही है और हिंदी किताबों, भाषणों आदि में गुम हो रो रही है. लेकिन फिर भी हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है. हिंदी की प्रसंगिग्कता आज यदि कहीं बची है तो वह है, साहित्य में. लेकिन वहां भी हिंदी के साथ राजनीती हो रही है. किस साहित्यकार या पत्रकार या फिर हिंदी में लेखन को जिन्दा रखने वाले को सम्मान से नवाज़ा जायेगा, ये उसके कर्म से ज्यादा राजनीती पर निर्भर करने लगा है. हिंदी की स्थिति की बात करें तो इससे अच्छी हालत तो प्रादेशिक भाषाओँ की है. कम से कम लोग बेझिझक, धड़ल्ले से अपने-२ स्थानों में उसका प्रयोग तो करते है. सरकार पट्टिकाओं पर हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहित भर करती है. अमली जामा पहनाने में उसकी दृढ इच्छाशक्ति गुम हो गई है. हिंदी का प्रयोग शान का विषय भी नहीं रहा. अंग्रेजी वाले के सामने हिंदी बोलकर शान बढती नहीं, घट जाती है, लेकिन हिंदी वाले के सामने अगर अंग्रेजी बोल दिया जाये तो सीना फक्र से चौड़ा हो जाता है. कुछ लोग, कुछ संस्थाए इन दिवसों पर अपने-२ स्तर पर कार्यक्रम आयोजित करके ‘हिंदी दिवस’ की आड़ में अपना उल्लू सीधा कर लेती है, और हिंदी का नाम हो जाता है. हिंदी तक ठीक से पढना-लिखना न जानने वाले भी अधिकांश कार्यों को अंग्रेजी में ही करना अपनी शान समझते है. जरुरत है हिंदी को औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि सच में सम्मान देने के लिए उसका जमकर उपयोग करने की और औरों से करवाने की. जहाँ हिंदी के प्रयोग की बात की जाये तो हमारे देश में कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी गयी है की बस पूछिए मत. सरकारी कार्यालयों और अन्य संस्थानों में हिंदी इतनी जटिल बना दी गयी है की सामान्य व्यक्ति उसे ठीक से समझ भी नहीं पाता है. एक परस्नातक परिचित ने अपने अनसुलझे एक मामले में सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगी तो उत्तर इतनी जटिल हिंदी भाषा में था की उसे अधिकांश चीजे समझ में ही नहीं आयीं. जिसका जिक्र उसने अपने तमाम परिचितों से किया. इस पर ध्यान देने की जरुरत है. दूसरा ये की हिंदी का रूप दिन पर दिन बिगाड़ा जा रहा है. जैसे की- ‘पर’ ‘पे’, ‘तुमने’ तूने’, ‘रहे’ ‘रे’ हो गए हैं. इंटरनेट और मोबाइल क्रांति ने हिंदी को अंग्रेजी के साथ मिला कर हिंगलिश बना दिया है. इसके लिए कौन दोषी है ? ‘ट्रेन लेट है.’ में केवल ‘है’ हिंदी का बचता है और कुछ भी नहीं ! कौन जिम्मेदार है ? विभिन्न प्रकार के मंच हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर और कई मंच चंद रोज तक चर्चा भर कर पाते हैं. इससे बहुत ज्यादा कुछ होने वाला नहीं है. पिछले दिनों बाबा रामदेव ने उच्च शिक्षा में हिंदी को माद्ध्यम बनाने की बात उठाई थी, इस पर ध्यान देने की जरुरत है. इस देश के लिए यह अच्छा कदम होगा. हिंदी माद्ध्यम से उच्च शिक्षित व्यक्ति निश्चित ही हिंदी की अवहेलना नहीं करेगा. आज हम हिंदी के विकास के लिए हिंदी दिवस मनाते हैं, क्यों न हिंदी का प्रयोग और विकास कर एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी जाये कि अंग्रेजी प्रेमी एक दिन ‘अंग्रेजी दिवस’ मनाये. यह नामुमकिन नहीं है. इसके लिए थोथी बातें नहीं ठोस कार्य करने होंगे…
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