शिक्षक बनाम नेता-अभिनेता सम्मान समारोह : एक प्रहसन
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अतीत में हमारे देश में राज्य नियंता, समाज के प्रतिष्ठित, मेधावी, प्रवीण, विषय पारंगत विद्द्वानो द्वारा समाज व् देश के लिए उनके द्वारा दिए गए योगदान का परितोष सार्वजानिक अभिनन्दन कर देते थे. यह एक स्वस्थ व् अच्छी परम्परा थी, जिसका समाज का प्रत्येक वर्ग स्वागत करता था. परन्तु ऐसे व्यक्तियों का चयन एक कठिन परीक्षा पद्दति व् श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा निर्विकार व् निरपेक्ष भाव से किया जाता था. यह प्रक्रिया यहीं पर समाप्त नहीं होती थी, इसके पर्यंत यह भी देखा जाता था कि उस सम्मानित व्यक्ति कि प्रवीणता का लाभ समाज कैसे ले सकता है. कदाचित हमारे वर्तमान समाज के श्रेष्ठ बुजुर्ग व् सुधारक सम्मान समारोह का आयोजन तो कर रहे हैं परन्तु चयन प्रक्रिया में शिथिलता का परिचय देते हुए येन-केन-प्रकारेण आयोजन पर आयोजन करते चले आ रहे हैं. नेताओं का अभिनन्दन एक सामान्य-सी बात दिखती है. फिर चाहे वह स्थानीय, प्रांतीय व् राष्ट्रीय नेता ही क्यों न हो. इस प्रक्रिया में पहले राज्य प्रत्येक वर्ग का अभिनन्दन अपने हाथ में लेता था परन्तु आज प्रत्येक वर्ग अपने स्तर पर इन कार्यक्रमों का आयोजन कर अपने ही किसी भी (योग्य-अयोग्य) प्रिय का सम्मान कर आत्मतुष्टि करने ने लगा है. पहले पक्षपात नहीं होता रहा होगा, यह कहना अतिषय होगा परन्तु जागृत समाज के कारन उसका परिमाण और अवकाश ज्यादा नहीं रहता था. यह सर्वविदित है कि चित्रपट जगत में भी इस प्रकार के सम्मान समारोह का आयोजन वर्षानुवर्ष से चला आ रहा है. फिर चाहे फिल्म फेयर आइफा, स्टारडस्ट, मिस वर्ल्ड, मिस यूनिवर्स या फिर अन्य मिलते-जुलते समारोह. इन अभिनय की दुनिया के कलाकारों के ये ‘सम्मान कार्यक्रम’ भी आक्षेपों, पक्षपातों व् सम्मान देने के लिए शोसन की कहानियों से अछूते नहीं रह पाए. प्रारंभ में फिल्म फेयर ही एकमात्र आयोजक था. परन्तु कालांतर में इस शो-बिज़ में कई समारोहों का आयोजन होने लगा. जिसके फलस्वरूप लगभग सभी कलाकारों को कहीं न कहीं पुरस्कार मिल ही जाता है. ऐसा ही ‘सम्मान समारोह’ विगत कुछ वर्षों से शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को दिया जाने लगा है. अब राज्य द्वारा भी श्रेष्ठ व् समर्पित शिक्षकों की चयन प्रक्रिया में हीला-हवाली कोई नई बात नहीं रह गयी है. इस गतिमान जीवन में सभी कुछ गतिमान ही रहे, यह जुमला जीवन के कई पहलुओं पर फिट नहीं बैठता है, यह हमें समझना होगा. शिक्षकों का सम्मान जायज है और होना भी चाहिए परन्तु यह कैसे तय होगा की सम्मान प्राप्त करने वाला शिक्षक अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित है? किस प्रकार के शिक्षको का सम्मान करना है ? उनकी शिक्षक के नाते से क्या उपलब्धि है ? इत्यादि. कई बारीक विषयों को चयन प्रक्रिया का आधार बनाना चाहिए. क्या इससे इंकार किया जा सकता है की विभिन्न आयोजकों द्वारा विद्द्यालय प्रबंधन को किसी भी अद्ध्यापक को नामित करने का प्रस्ताव तक भेजा जाता हो ? अक्सर सुनने में आता है की नामांकन पर अद्ध्यापको की आपस में ही ठन जाती है, जब उनको नामित ही नहीं किया जाता है. जिस पर प्रबंधन द्वारा उन्हें समझा-बुझा कर यह कहते हुए शांत किया जाता है की यार ५ सितम्बर २०१२, १३, १४ के साथ ही आगे भी आता रहेगा. मुझे लगता है की आयोजकों की मंशा की श्रेष्ठता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता परन्तु चयन प्रक्रिया खानापूर्ति मात्र निमित्त न बने, यह देखना होगा. दूसरा यह कि एक शिक्षक अच्छा व् श्रेष्ठ शिक्षक हो सकता है, यह तब पता चलेगा, जब उसने इस व्यवसाय में एक लम्बा कालखंड गंवाया हो. २, ४ या ५ वर्ष में शिक्षक कि गुणवत्ता, प्रखरता व् श्रेष्ठता नहीं आंकी जा सकती. अंतिम बात ये कि शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का सम्मान तो समझ में आता है लेकिन अन्यों को सम्मानित कर क्या कथित आयोजक ‘अँधा बांटे रेवड़ियाँ, फिर-फिर अपने को दे’ या ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू’ तो नहीं बन रहे हैं ? अब ऐसे में यदि यह आशंका जताई जाये कि निकट भविष्य में शिक्षकों का सम्मान समारोह एक प्रहसन मात्र बनकर रह जायेगा तो कुछ गलत न होगा.
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