हम खुद को इंसान कहते है. अभी एक दिन एक समाचार चैनल ने दिखाया की किस प्रकार हम हमारे पूर्वजों (बंदरों) के प्रति कहर ढा रहे थे. खुद को इंसान कहते हुए भी शर्म आ रही थी. सृष्टि के एक प्राणी के साथ ऐसा बर्ताव करने का ठेका हमें किसने दिया ? कुछ ही देर में पता चला कि वह ठेका दिल्ली की महानगरपालिका ने दिया था. दिल्ली में संसद के नजदीक बढ़ रही बंदरों कि संख्या को कम करने के लिए ये ठेका दिया गया था. बहेलिये बंदरों को बड़ी बेदर्दी से पकड़-२ कर ट्रक में भर रहे थे. ठेकेदार को एक बन्दर को पकड़ने के लिए एक हज़ार रुपये मिलते हैं. तस्वीरें दिल दहला देने वाली थीं. इसी वर्ष के आरम्भ में हिमाचल प्रदेश में ग्राम पंचायत और नगर पालिका के चुनावों में सरकार ने किसानों को बंदरों के आतंक से मुक्ति के लिए उन्हें गोली मारने कि छूट दे दी थी, जिसे बाद में वापस ले लिया था. लेकिन उस दौरान किसानो ने हाथों में बन्दूक उठाकर बंदरों को मारना शुरू कर दिया था. दिल्ली जैसे शहरों में लोग काफी संख्या में बंदरों के आतंक से आहात हैं और अपने स्तर से बचने के उपाय भी करते रहते हैं. लेकिन ठेकेदार वाली बेदर्दी आम इंसानों में नहीं है. ठेकेदार तो पैसे के लिए काम करता है, उसे तो किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक बन्दर पकड़ कर दूर छोड़ने होते हैं. लेकिन क्या इन्शानियत भी कोई चीज है या नहीं ? बंदरों के साथ अमानवीय व्यवहार के लिए किसे दोषी माना जाना चाहिए ? एक ओर इसी देश में हनुमान जी की पूजा की जाती है. अभी हाल ही में हिमाचल प्रदेश में ही हनुमान जी की बड़ी सी मूर्ति की स्थापना की गयी है. बात होती है की बन्दर हमें नुक्सान पहुंचाते है. आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? जब हम किसी के घर को तबाह कर देंगे तो वे क्या करेंगे ? खेत, खलिहान और जंगलों को तबाह कर हमने कंकरीट के जंगल खड़े कर लिए हैं. जानवरों के घर को तबाह करते वक्त हमने क्या सोचा था की ये कहाँ जायेंगे ? नहीं सोचा था. इसमें जानवरों का क्या कुसूर है ? आज इस देश में बहुत से लोग जानवरों से परेशान हैं. जानवर कभी खाने के लिए तो कभी पानी के लिए शहरों और गावों का रुख कर लेते हैं और हम इंसानों के आराम में खलल डालते हैं. जब हमने अपने विकास के लिए इनके विकास का ध्यान नहीं रखा तो हम कैसे इनसे अपने इलाकों में न घुसने की उम्मीद करते हैं ? वे तो जानवर होकर जानवर हैं और हम इंसान होकर भी जानवर होते चले जा रहे हैं…!!!
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