हमारी चुलबुली गौरैया अब हमारे बीच नहीं आती. हम सामाजिक प्राणी हैं, और गौरैया भी. हमने अपने आशियानों के चक्कर में उसके आशियाने की खबर ही लेनी छोड़ दी. उसे तो ग्रामीण भारत और उसके भारतवासी सुहाते थे. लेकिन ये इंडिया वालों ने सब कुछ चौपट कर दिया. वो खेत, खलिहान, घास फूस के घर, हरे भरे पेड़. दुनिया भर के शोर शराबे से दूर शांत और हरा भरा माहौल, जिसमे वह अपने को सहज महसूस करती थी, अब गायब से हो चुके है. हमने उसकी सहजता को काफूर कर दिया. कंक्रीट के जंगलों के बीच गाड़ियों की रेलमपेल और दूर संचार क्रांति ने गौरैया को हमसे दूर कर दिया. हमारे साधारण घरों में सहजता से आ जाती थी. हमारे बीच खेलती कूदती और फुदकती थी. हमारे किसी भी कमरे में जाने की उसे आज़ादी होती थी. घर में उसका छोटा सा आशियाना हमारे आशियाने की शोभा बढ़ा देता था. छोटे-२ बच्चे गौरैया से संग खूब खेलते थे. लेकिन अब बच्चो को फुर्सत ही कहाँ है कंप्यूटर से ? अब तो बड़े और बूढ़े, बच्चे और जवान सभी कंप्यूटर के आगे सुबह से शाम तक बैठे-२ समय से पहले ही बूढ़े हो रहे है. हमारे महलों और चमचमाती सड़कों के बीच गौरैया का आना-जाना सब कुछ ख़त्म हो गया है. विदेशों के कुछ देशो ने इसे लुप्त होते पक्षी की श्रेणी में रखा है और प्रयास कर रहे हैं कि वह सब कुछ फिर से लौट आये. लेकिन जब वे विकास कि दौड़ में थे तब सब कुछ भूल गए थे. आज हम ग्रामीण भारतवासी भी यही कर रहे हैं. आज गौरैया के लिए सबसे खतरनाक है मोबाइल फ़ोनों कि तरंगे और शीशा रहित पेट्रोल का दहन. तरंगों में हमारी प्यारी गौरय्या अपने सोचने-समझने कि ताकत ही खो बैठती है. वह अपना रास्ता भूल जाती है. जिस कारन वह हमारी मानव आबादी से दूर बहुत दूर होती चली गयी. हमने उसकी तनिक भी परवाह नहीं कि. प्यारी सी, नन्ही सी गौरैया के लिए हमारे घरों में न तो आँगन है और ही उसके साथ खेलने के लिए हमारे बच्चो के पास समय. मुझे याद है. चारों और से बंद लेकिन घर के बीचो-बीच खुले स्पेस को देखकर एक दिन एक नन्ही सी गौरैया आ गयी. उसका फुदकना, चुलबुलाना, जैसे उसने मन मोह लिया. झट से कुछ चावल के दाने डाल दिए. अगली बार वह अपने नए साथियों को लेकर आई. उसकी ये संख्या बढती चली जा रही थी. मुझे भी उसकी आदत सी हो गयी. मैंने उनके लिए एक जगह फिक्स कर दी. वहां पर एक कटोरी में पानी भर कर रख दिया. कटोरी के चारों ओर चावल के दाने हमेशा बिखेर कर रखता था. जब-२ भूख लगती वे सारी कि सारी चह्चाहिती हुए आती और दाना चुगने लगती. आपस में उनका लड़ना मंत्रमुग्ध कर देता था. दाना चुग कर. सुस्ताने के लिए वे सारी आस-पास कि बिना पलस्तर की दीवारों में बनाये अपने-२ अड्डों पर चली जाती. कईयों ने वहां घोसला बना लिया था. कपडे फ़ैलाने के तार पर वे अक्सर मुझे अपना सर्कस दिखाया करती. छोटे बच्चो कि तरह उन्हें मुझसे प्रेम हो गया था. एक-दीसरे कि शिकायत भी करती. शरारत करते हुए वे अक्सर मेरे कमरे में बिलकुल मेरे करीब आ जाती. उनके खाने पर कभी-२ कौवों के आ जाने पर वे झट से मेरे पास शिकायत लेकायत लेकर पहुँचती. जैसे ही कौवों को भागता, सब कुछ शांत हो जाता. सुबह और दोपहर का समय उनके साथ, उनकी चहक के बीच यूं बीत जाता, जिसे शब्दों में बयां करना कठिन है. आज यदि हम अपने विलाशितापूर्ण जीवन में यदि कटौती करें और अपने घरों में उनके लिए थोड़ी सी जगह बना दे तो शायद मुमकिन हो कि हमारी यह प्यारी-सी गौरैया फिर से हमारे बीच चहकने लगे.
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