आज फिर आप लोगों के समक्ष निशंक जी एक रचना को प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशा ही नहीं पूर्ण विश्वाश है की आप लोगों को ये पसंद आएगी. ————————————————————————————————————————————————–
आज मानवता रह-रह के रोती है क्यों नहीं बात मानवता की होती है. —————————————————————————— बात आदर्श की कोई सुनता नहीं, मार्ग परहित का क्यों चुनता नहीं. अब तो हर बात उथली है, क्यों नहीं बात मानवता की होती है. —————————————————————————— क्यों न मर्यादा को हमने जाना यहाँ, क्यों न धरती को माँ सबने माना यहाँ. आज संस्कृति घुट-घुट रोटी है, क्यों नहीं बात मानवता की होती है. —————————————————————————— भाई-भाई को न कोई सहता जहाँ, बेगुनाह खून धरती पे बहता वहां. ये धरा तो सभी को ही धोती है, क्यों नहीं बात मानवता की होती है. —————————————————————————— देख निर्धन को सबने ही कुचला जहाँ, ढोंग का बन गया व्यक्ति पुतला वहां. आज मानवता पहचान खोती है क्यों नहीं बात मानवता की होती है. —————————————————————————— – रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कृति ‘ए वतन तेरे लिए’ से साभार.
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