हमारे घरों में बहुत-सी चीजें खराब हो जाती हैं या फिर काम की नहीं रहती हैं तो हम अक्सर उन्हें बदल देते हैं. मतलब उनकी जगह दूसरी नयी चीजें हमारे घरों में ले आई जाती हैं. कुछ रूढ़िवादी लोग पुरानी और बेकार चीजो को फेंकना पसंद नहीं करते हैं. अर्थात अपना कार्य चलाने के लिए नयी चीजें तो ले आते हैं लेकिन पुरानों को घर के किसी बेकार से कोने में जैसे घर में बने छज्जे, गन्दी अलमारी, फटी हुयी बोरी, थैलों आदि में भरकर रख देते हैं. अक्सर साल-छ महीने में होने वाली घर की सफाई के समय इन बेकार पड़े सामानों को लतियाया जाता है. फिर कबाड़ी को बुला तुलवाया जाता है. घोटालों और महंगाई से त्रस्त इस देश के वाशियों में कुछ वासियों का यह विचार बन रहा है की प्रधानमंत्री को बदल दिया जाये. यदि कुछ लोग ऐसा सोच रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं ? ——————————————————————————————————————————————- मान लीजिये की प्रधानमंत्री को बदलने की कवायद चलाई जाये तो नए प्रधानमंत्री कौन होंगे ? पी.एम.-इन-वेटिंग सबसे पहले तो आडवानी साहब पर नज़र जाएगी. अभी हाल ही में प्रणव दा भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख चुके हैं. कांग्रेस के राजकुमार अभी बहुत छोटे हैं. उनकी ट्रेनिंग चल रही है. वह खेतों की मेड़ों पर चलकर राजनीती की राह को आसान बना रहे हैं. लालू प्रसाद को कैसे भूला जा सकता है ? आज भले ही वह हाशिये पर पड़े हुए हैं लेकिन प्रधानमंत्री बनने का दम तो उनमे भी है. उनके प्रधानमंत्री बनने पर देश की तश्वीर वैसे ही हो जाएगी जैसे बिहार की हो गयी थी. बहन मायावती भी कम सक्षम नहीं हैं. अभी हाल ही में करोड़ों के खर्च पर अपना ५५ वां जन्म दिवस मनाकर उन्होंने युवा होने वाली उम्र की चौखट पर बस कदम रख ही दिया है. नहीं समझे ! अरे भैया ! राजनीती में कोई भी नेता ६० के बाद ही युवा होता है. इसीलिए ४४ के हो चुके कांग्रेस के राज कुमार को अभी भी बच्चा बताया जाता है. आज भी उत्तर प्रदेश में करीब ७२ फीसदी दलित गरीबी कि रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं. ——————————————————————————————————————————————— ये कोई फलानी-धिमकानी नीति नहीं है, ये ‘राज’ नीति है, समझे. मुद्दे की बात तो ये है की क्या प्रधानमंत्री को बदल देने से इस देश की दशा बदल जाएगी ? प्रधानमंत्री क्या होता है ? इस देश में बहुमत प्राप्त दल अपना कहना मानने वाले व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री बनाता है. अटल बिहारी वाजपेयी आपको याद हैं की भूल गए ? जब वे प्रधानमंत्री थे, तब कभी-२ देशभक्ति के जोश में आकर वे बहुत कुछ बोल जाया करते थे लेकिन फिर उन्हें अपने कहे से कल्टी खानी पड़ती थी. ——————————————————————————————————————————————– राष्ट्रीय त्योहारों पर प्रधानमंत्री की जुबान से निकला एक-एक शब्द उसकी खुद की सोच और मानसिकता का परिणाम नहीं होता है बल्कि पूर्व में लिखवाया गया होता है. सोच-समझकर लिखवाया गया होता है की आपको यही बोलना है, कुछ और नहीं. कुछ समझ में आ रहा है आपकी या नहीं ? प्रधानमंत्री कठपुतली होता है. उसे वही करना होगा जो पार्टी द्वारा उसे कहा जायेगा. ये बात सभी जगह लागू होती है. अब क्या कठपुतलियाँ बदलने से इस देश की दशा बदल जाएगी ? ———————————————————————————————————————————————— अभी हाल ही में प्रधानमंत्री की चुनिन्दा टीवी चेनलों के संपादकों संग हुयी मीटिंग में बहुत कुछ साफ़ हो गया. शायद ही कोई संपादक संतुस्ट नजर आया हो. किसी ने अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री कहा तो किसी ने उन्हें तगड़ा राजनीतिक प्रधानमंत्री कहा. कौन किस पर भारी पड़ा यह साफ़ हो गया है. वैसे तो सत्ता पार्टी की तरकीब अच्छी थी की अपना पक्ष रख कर साफ-सुथरा हो लिया जाये लेकिन पत्रकारिता में एक लाईन होती है- ‘Meaning between the line’ . यही कारण था की प्रधानमंत्री लाख कोशिश करते रहे लेकिन संपादकों को झांसा देना इतना आसान नहीं होता है. उलटे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली बात हो गयी सो अलग. प्रधानमंत्री का कहना की “मै दोषी तो हूँ लेकिन उतना नहीं जितना प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है.” अपने आप में बहुत कुछ कह गया. उनके ढुलमुल जवाब पोल खोल रहे थे. कक्षा के बच्चो की तरह संपादकों को हेंडल किया जा रहा था. पता नहीं क्यों यह सब लिखते समय मिस्र के आन्दोलन की याद आने लगी ?
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