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सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति अभी नहीं हुयी है…

Proud To Be An Indian
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स्वतंत्रता के बाद कितने ही गड्तंत्र दिवस हम मना चुके हैं. आज संविधान को देखा जाये, तो प्रतीत होगा की वास्तविक संविधान अपने मूल रूप में रह ही नहीं गया है. इस देश में समय-२ पर स्वार्थी लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उसमे इतने बदलाव कर डाले हैं की जिसके कारन संविधान लागू होने के दिवस को आज खानापूर्ति भर के लिए ही अधिक मनाया जाने लगा है. आधिकारिक रूप से तो खास कर. एक अवकाश और फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ ! संविधान बनाते वक्त ये ध्यान रखा गया था कि हमारे संविधान में वे तमाम बाते शामिल हो जाये जिससे इस देश को अधिक लाभ मिल सके, लेकिन क्या ऐसा हो पाया है ? आज राष्ट्रीय त्योहारों का तो ये आलम है कि आधिकारिक रूप से शहीदों को श्रद्धांजलि देने में भी कोताहियाँ बरती जा रही हैं. साल भर जिन स्थलों पर कूड़ा-कबाड़ा रहता हैं वहां एक दिन उसकी खूब लिपाई-पुताई कि जाती हैं. राष्ट्रीय त्योहारों को आधिकारिक लाभों हेतु भुनाया जाने लगा है.
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स्वतंत्रता प्राप्त होने के कुछ समय पूर्व ही भारत में एक संविधान सभा की स्थापना की गयी थी, जिसने २६ नवम्बर १९४९ को संविधान निर्माण का कार्य पूरा किया और २६ जनवरी १९५० से यह संविधान लागू किया गया. संविधान के द्वारा भारत में एक प्रजातंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गयी है और परतंत्र के आधारभूत सिद्धांत व्यस्क मताधिकार को स्वीकार किया गया है. संविधान के द्वारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की गयी है और नागरिकों को शासन के हस्तक्षेप में स्वतंत्र रूप से मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं.
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संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के अन्दर और बाहर, भारत और विदेशों में भारतीय जनता की राजनीतिक जागरूकता के प्रति बहुत अधिक संशय व्यक्त किया गया था लेकिन अब तक जिस ढंग से आम चुनाव संपन्न हुए और भारत की जनता ने अब तक जिस प्रकार विवेकपूर्ण ढंग से अपने राजनीतिक शक्ति का प्रयोग किया है, उसके आधार पर कहा जा सकता है की भरिय नागरिक एक प्रजातंत्रात्मक देश के सुयोग्य नागरिकों के समान आचरण कर सकते हैं. इस देश की जनता ने स्वतंत्रता के बाद कई बार अपनी राजनीतिक जागरूकता और परिपक्वत्ता तथा लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था का परिचय दिया है.
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१९७७ में लोकसभा चुनाव में उसके द्वारा अधिनायकवाद की और बढती हुयी प्रवृत्तियों का विरोध करते हुए लोकतंत्र का समर्थन किया गया, लेकिन जब शासन के सञ्चालन में तत्कालीन शशक वर्ग की अक्षमता सामने आ गयी और केंद्र में राजनीतिक अस्थायित्व की स्थिति पैदा होने लगी, जब जनता ने इस राजनीतिक सत्य को समझा की लोकतंत्रीय व्यवस्था और देश के हित में छ्म्तावान शासन तथा राजनीतिक स्थायित्व जरुरी है. दल-बदल पर कानूनी रोक से लोकतंत्र की दिशा में एक श्रेष्ठ कार्य हुआ है. लेकिन इन सबका आशय यह नहीं है की हमने एक पूर्ण प्रजातंत्र की स्थापना कर ली है. भारतीय प्रजातंत्र के रस्ते में आज भी कुछ मुश्किलें हैं. शिक्षित बेरोजगारी, भूखमरी, महंगाई, पेयजल, बिजली, पर्यवार्नीय आदि एक नया संकट बने हुए हैं. शिक्षा के छेत्र में हमने व्यक्ति को शिक्षित करके भले ही कुछ प्रतिशत बढ़ा लिया हो लेकिन यह शिक्षा न तो रोजगार की और उन्मुख है और न ही इसके द्वारा स्वतंत्र रूप से विचार करने की प्रवृत्ति को उत्पन्न किया जा सका है.
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दलीय व्यवस्था की दृष्टि से आज इस देश में स्थति सोचनीय है. सही अर्थों में आज na तो कोई भारतीय दल है और न ही koi अखिल भारतीय राजनीतिक व्यक्तित्व. इस देश की जनता चुनावों में सदैव जनादेश देना चाहती है लेकिन इस राजनीतिक स्थति के कारन वह ऐसा नहीं कर पाई. हड़ताल, भूख-हड़ताल, प्रदर्शन और आन्दोलन की प्रवृत्तियां भी समय-२ पर बहुत अधिक प्रबल हो उठती हैं जिन्हें संयमित किया जाना आवश्यक है. वर्तमान में जम्मू-कश्मीर सरीखे कुछ राज्यों में शांति और व्यवस्था की बिगड़ी स्थति लोकतंत्र के लिए संकट का नया कारन बन गयी है. भारतीय नागरिकों को समझना होगा की भारत जैसे विकाशशील देश का लक्ष्य अनुशासित लोकतंत्र ही हो सकता है. लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है की लोकतंत्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जाये और वह लक्ष्य है, सामाजिक-आर्थिक न्याय. हम इस लक्ष्य को अभी प्राप्त नहीं कर पाए हैं और सबसे अधिक दुःख की बात है की हम इस दिशा में आगे भी नहीं बढ़ रहे हैं. सोने पे सुहागा ये की आज इस देश में तिरंगे पर भी स्वार्थ की राजनीती होने लगी है. आज हिन्दुस्तान की ऐसी हालत देख कर ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ जाती हैं:

“एक दिन मिला नुमाईस में वो मुझे चित्थ्ड़े लपेटे हुए,
पूछा जो मैंने नाम उसका, बोला हिन्दुस्तान हूँ मै”.

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