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आज तो पार्टी होगी … !

Proud To Be An Indian
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कुछ चलन सा चल पड़ा है की हम छोटी-२ बात पर एक-दुसरे से पार्टी मांगते रहते हैं. ये कैसी पार्टी है ? साथी के साथ कुछ छोटा सा विशेष हुआ की पार्टी होनी चाहिए ! धीरे-२ ये ऐसी आदत में शुमार हो गया है की बस पूछिए मत. असल में इस पार्टी का सीधा आशय साथी के हुए कार्य की ख़ुशी को बाँटना है. लेकिन इसका वर्तमान रूप इतना विकृत होता जा रहा है की पार्टी शब्द से ही घृणा होने लगी है. मेरी खुद की दिहाड़ी की जगह बदली तो मजदूरी में थोड़ी से बढ़ोत्तरी हुयी. मेरी तरह साथियों को भी ख़ुशी हुयी. बस फिर क्या … पार्टी होगी !
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इस तरह की कई खुशियों को पूर्व में मै अपने सामान्य तरीके इसे बाँट चूका हूँ, जिसमे अपने अन्दर की ख़ुशी से अपनी चादर के अनुसार कुछ थोडा-बहुत ला कर साथियों का मुह मीठा करवाया तो बस हो गयी ख़ुशी, मुझे भी और साथियों को भी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. सभी साथियों में से एक होशियार साथी ने अगुआई की और चलते-२ बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना को भी पार्टी का शरीक बनाया और इस प्रकार साथियों की संख्या में एक अदद का और इजाफा हो गया. होशियार साथी ने अपने जानने वाले के ढाबे पर दे पटका और चाहे-अनचाहे सभी को वही पर अपनी ख़ुशी का इज़हार करना पड़ा. सभी की चाहत अनुसार अलग-२ रेसिपी समझ में आ रही थी लेकिन होशियार साथी को दोगुनी ख़ुशी थी और उसके लिए उसने ‘मय’ को भी शामिल कर लिया. उनकी संख्या ३ बोतलों तक हो चली.
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सभी के खाने के बिल से ‘मय’ का बिल अधिक आया. एक साथी को ये पार्टी इतनी बुरी लगी की उसने अपने पर्स से उसकी भरपाई करने के लिए मेरे हाथ में करीब तीन लोगों के खाने के बिल जितनी राशी रख दी. मै समझ गया की मेरी तरह कई साथियों को ये पार्टी सही नहीं लगी. मैंने जबरदस्ती उसके पैसे उसके पर्स में वापस डाले और झूठी ख़ुशी का इज़हार भी किया. एक और नए साथी के प्रति ख़ुशी का इज़हार भी कुछ इसी प्रकार से हुआ. मुझे भी शरीक किया गया. समूह से बाहर निकलना शायद आसान नहीं होता है, इसलिए मुझे भी वही सब करना पड़ा. अभी हाल ही में होशिआर साथी को भी एक ख़ुशी की प्राप्ति हुयी. और फिर वही पार्टी. होशियार दोस्त की मार से आह़त एक साथी ने ये पार्टी अपने चहेते ढाबे में करवाई और फिर ८ लोगों की पसंद की रेसिपी मंगवाई गयी. ‘मय’ भी साथ थी.
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इस बार की पार्टी में जाने के लिए मैंने इस बार स्पस्ट मना किया लेकिन मुझसे जबरन ख़ुशी का इज़हार करवाया गए. ढाबे में भीड़ के कारण काफी देर बाद मनचाहे पकवान आये और पेट की जरुरत से ज्यादा आये. कुछ साथियों ने कुछ पकवानों से नाक-भौ सिकोड़ी और तस्तारिया छू-२ कर वैसे ही छोड़ दी. जाते वक्त करीब ४ लोगों का बेहतरीन भोजन ढाबे के डस्टबिन के लिए छोड़ दी गयी. आते वक्त मैंने दिल का गुबार इस साथी से बात कर निकाला लेकिन नाजायज़ तरीके से बर्बाद किये भोजन का दुख इतना भारी था की अब आप से साझा कर रहा हूँ.
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आज भी इस देश में गरीबी, भुखमरी, बीमारी, अशिक्षा और बहुत कुछ अपने को चिल्ला-२ कर दिखा रहे हैं. अंदाजा लगाइए की रोजाना कितना खाना हमारी पार्टियों में हम बर्बाद करते होंगे. वह भी ख़ुशी-२ ! फिर ये भी क्या ऐसी पार्टिया ख़ुशी का इज़हार करती हैं ? साथी के जिस काम के पूर्ण होने में हमारा तनिक भी सहयोग नहीं होता है, उसके लिए भी हम पार्टी मांग लेते हैं. जिस काम की पूर्णता में हमारा कोई योगदान होता है, उसके लिए तो हम पार्टी ले ही लेते हैं. क्या ये पार्टी रिश्वत का ही एक रूप नहीं है ? क्या ये प्रचालन हमारी आदतों, हमारे संस्कारों पर काबिज़ नहीं हो रही है ? वह भी तब जब एक साथी को अपने घर पर ये कहना पड़े की “इस महीने तो वेतन कम ही आएगा”. बात वहीँ आ कड़ी होती है की समाज की दिशा आखिर हम ही तो तय करते हैं. तो क्या हमें अपनी दिशा को ही दुरुस्त करने की जरुरत नहीं है ?

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