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विभिन्न दर्शन सिद्धांतों का एकत्रीकरण

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पिछले कुछ समय से मै समाज के छुए-अनछुए बिन्दुओं पर अपनी अल्पबुद्धि से जो भी समझ में आता है, उसे लिखता आ रहा हूँ. मुझे लगता है की लेखन एक बहुत ही कठिन कार्य है. विशेषकर ऐसा लेखन जो प्रभावी हो. छोटे-२ प्रसंगों पर टिप्पणियां करने से आत्म-संतुष्टि होती है परन्तु अभी तक विगत ५-७ वर्षों में ऐसी प्रेरणा नहीं मिली की मै किसी पुस्तक की रचना कर सकू. आखिर पुस्तक लिखना कोई बच्चों का खेल थोड़े ही है. पहले पुस्तक का संकल्प लेना, फिर लिखना और तत्पश्चात प्रकाशित करना आदि कदाचित कठिन कार्य है. इसके बावजूद भी हर वर्ष पुस्तकों के प्रकाशन का क्रम चलता ही जा रहा है. ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति द्वारा पुस्तक रचना, उसे साधुवाद का निमित्त बना देती है.
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प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना में मानव को इंगित किया गया है. निसंदेह उस निराकार ने इस मानव देह की रचना में कोई कोर-कसार नहीं छोड़ी है. ऐसे में क्या इसका दायित्व नहीं बनता है की यह मानव देह भी कुछ ऐसा कर जाए की उसके जाने के पश्चात भी यह संसार उसे याद करता रहे ? उसके किये हुए कार्य से कुछ लोगों का भला हो पाए ? इसी क्रम में परोपकार के कई माध्यम हैं. परन्तु परोपकार की भावना आना ही आज असंभव प्रतीत हो रहा है. समाज सेवा में लगा प्रत्येक व्यक्ति अपने तरीके से इस कार्य को अंजाम दे रहा है. लेखन के माध्यम से परोपकार करने वाले निश्चित ही अपने पीछे अपनी दोहरी पहचान छोड़ रहे हैं.
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अभी हाल ही में प्रकाशित श्री ह्रदय राम ‘पान्थ’ की ‘आत्मा बोधार्थ’ पुस्तक एक बेहतरीन कोशिश है. ‘आत्म बोधार्थ’ विविध ग्रंथों से संकलित श्री ‘पान्थ’ की वह रचना है जिसे उन्होंने अपने जीवन-पर्यंत ज्ञान रुपी मोतियों को चुन-२ कर एकत्र किया और फिर उसे एक धागे में पिरोकर माला का रूप दे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है. आज के इस दौड़-भाग वाले जीवन में व्यक्ति के पास अध्यात्म के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचा है. शिक्षा से आशय पैसे कमाने की मशीन बनाने वाले यंत्र से लिया जा रहा है. हर कोई अधिक पैसा कमाने का जतन करने में जुटा है. शिक्षा डिग्री रुपी कागज के टुकड़े में समाहित होकर रह गयी है. विश्व गुरु कहलाने वाला हमारा देश आज विदेशों की डिग्री रुपी शिक्षा का पिछलग्गू हो गया है. यही कारन है की कुछ विदेशी इस देश की पहचान जादू-टोने, साधू-संतों तथा सपेरों के देश के रूप में बताते है. कारन है कि इस देश का मानुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भूले बैठा है. मानव हित में रचित तमाम ग्रन्थ इस देश के लिए जहाँ गौरव की बात है, वही उससे लाभ न ले पाना हमारे देश वासियों के लिए दुर्भाग्य कि बात है. यदि हम इन्हें पढ़ और पढ़कर आत्मसात करें तो हमारा जीवन प्रकाशमय हो जाय. इस पुस्तक की यही महत्तवपूर्ण बात है की इसमें तमाम ग्रंथों को छानकर उसके गूढतम तत्वों को निकालकर एक स्थान पर एकत्रित कर सामान्य पाठक को उपलब्ध करवाया गया है. जीवन के सार को समझने के लिए विभिन्न दर्शन-सिद्धांतों का एकत्रीकरण इस पुस्तक के वजन को बढ़ता है. यह एक पठनीय पुस्तक है.
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लेखक को विशेष धन्यवाद करना चाहिए की अत्यंत ही अच्छी साज-सज्जा एवं कागज के उपयोग के बाद भी पुस्तक का मूल्य ‘आत्म बोधार्थ प्रयास’ रखकर पुस्तक को अमूल्य कर दिया है. जिसके लिए लेखक एवं प्रकाशक को धन्यवाद करना आवश्यक हो जाता है. कवर पेज पर दिया गया चित्र प्रशांत चित्त का द्योतक लगता है. जहाँ सूर्योदय की लालिमा अमृत बिखेरती हुयी दिखती है. लेखक द्वारा प्रकाशनार्थ पुस्तकों की प्रतीक्षा करना लाज़मी लगता है. वैसे तो पुस्तक में मानव जीवन के प्रत्येक प्रसंग को उचित स्थान दिया गया है परन्तु कुछ प्रसंग वर्तमान भारतीय जीवन में फिसलते हुए दिख रहे है, जिन्हें स्मरण करना यथोचित होगा. पेज १० पर दिया है- चिंता से (इस संसार में) दुःख उत्त्पन्न होता है, अन्यथा नहीं. ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह सुखी और शांत है. पेज ९३ पर दिया है- गृहणी रही सुधर्मिनी किसका रहा अभाव ? गृहणी नहीं सुधर्मिनी किसका नहीं अभाव ? अर्थात जिस गृहस्थ के घर में ‘भार्या’ नारी धर्म का आचरण करने में निरंतर कर्ताव्निष्ठ में लगी रहती हो, उस गृहस्थ पुरुष के पास जीवन उपयोगी सभी पदार्थ एवं वस्तुएं सदा उपलब्ध रहती हैं. परन्तु जिस घर में ‘भार्या’ नारी धर्म का आचरण नहीं करती, वहां गृहस्थ जीवन संकटमय बना रहता है. पेज ९६ पर दिया है की यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान शमाशील पुरुष न हो, तो मनुष्यों में संधि हो ही नहीं सकती, क्योंकि झगडे की जड़ तो क्रोध ही है और पेज ९७ पर दिया है- छमा बदन को चाहिए छोटन को उत्पात. विष्णु को का घटी गयो जो भृगु ने मारी लात. (कर्ण परम्परा से) अर्थात बड़ों का बड़प्पन इसी में है की वह अज्ञानी, क्रोधी, अहंकारी और मुर्खता से भरे व्यक्ति के द्वारा किसी भी कारणवश तिरष्कृत किये जाने पर भी उसे छमा दान कर दे. ये सभी तथ्य पुस्तक की उपयोगिता को दर्शाते हैं.
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पुस्तक – आत्म बोधार्थ (विविध ग्रंथों से संकलित)
लेखक – श्री ह्रदय राम ‘पान्थ’
प्रकाशक – पथिक बन्धु
मूल्य – ‘आत्म बोधार्थ प्रयास’
पृष्ठ – २५३

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