देश में भ्रस्टाचार और लालच के बढ़ने की स्वीकार्यता
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इतिहास स्वयं को दोहराता है, ये बात हम और आप बखूबी जानते है. जो लोग इससे इंकार करते है, वे स्वयं को धोखा देते है. कभी समय था, जब स्वर्गीय राजीव गाँधी ने ये माना था की केंद्र से चलने वाला एक रुपया देश के वास्तविक जरूरतमंद तक पहुँचते-२ मात्र १५ पैसे रह जाता है. तो फिर बाकि का ८५ पैसा कहाँ जाता है ? आशय साफ़ है की ऊपर से नीचे तक बँट जाता है. या आप कह सकते है की बाँट लिया जाता है. इतिहास ने करवट ली और आज करीब २५ वर्ष पश्चात श्रीमती सोनिया गाँधी ने इस देश के पूर्व प्रधानमंत्री और अपनी सास स्वर्गीय इंदिरा गाँधी की जयंती के अवसर पर एक सम्मलेन को संबोधित करते हुए यह माना की देश में समृद्धि बढ़ी है, लेकिन सामाजिक टकराव भी बढे है. उन्होंने स्वीकार किया कि देश में भ्रष्टाचार और लालच बढ़ रहा है और वे सिद्धांत खतरे में हैं, जिनके आधार पर स्वतंत्र भारत देश की बुनियाद पड़ी थी. ———————————————————————————————————————————————- कहते है, कुशल स्वामी वह होता है, जो कभी-२ जानबूझ कर अपनी आँखें बंद कर ले. लेकिन जब यह आवृत्ति बढ़ने लगे तो वहां पर उसकी कुशलता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है. आज़ादी के पहले भी इस देश के कुछ लोगों के दिलों में लालच था, वे थोड़े-बहुत भ्रष्ट भी थे, उस समय भी सामाजिक ताने-बाने में टकराव था. तभी तो तमाम विदेशी लूटेरों, शाशकों और साम्राज्यवादियों ने यहाँ पर अपनी हूकुमत को अंजाम दिया. अंग्रेजों के जाल में फंसने का एक बहुत बड़ा कारण लोगों को लालच देना हुआ करता था. बहुत से हिन्दुस्तानी जो अंग्रेज वर्दीधारी सिपाहियों की लाठी का शिकार होते थे, वे सिपाही मूलतः हिन्दुस्तानी ही होते थे. जिन मुट्ठी भर अंग्रेजों ने करीब ३५ करोड़ भारतियों पर जो लगभग २०० वर्षों तक शासन किया उसका आखिर क्या कारण था ? यही कि हममें से अधिकांश का अंग्रेजों के बहकावे और लालच में आ कर उन्हीं का साथ देना. लेकिन अति तो हर चीज की बुरी होती है. परिणाम स्वरुप उन्हें भारत से जाना ही पड़ा. हालाँकि जाते-जाते भी वे बहुत-कुछ ऐसा कर गए, जिसे हम आज भी भोगने को विवश है. ———————————————————————————————————————————————- ऐसा माना जाता है कि आज़ादी के बाद जब तक सैधान्तिक मार्ग पर चलने वाले लोग सियासत में रहे, तब तक तो आटे में नमक पड़ता था लेकिन जैसे-२ उन लोगों से ये मिटटी विरक्त होती गयी, वैसे-२ इस भूमि पर आटे में नमक की मात्रा बढ़ती गयी. कहीं मलाई और कहीं छाछ ने सामाजिक विकृत्ति को बढाया. असमानता ने सामाजिक टकराव को बढाया. भाई-भतीजावाद ने देश को दीमक की तरह चाटने का काम किया और निम्न वर्ग में नफरत का बवंडर घुमड़ने लगा. कारन भी था. आज वोट, कुर्सी और नोट एक-दुसरे का पर्याय बन गए है. भारतीय लोकतंत्र इन्ही के इर्द-गिर्द घूमने को विवश हो गया है. इसे आखिर कैसे ठीक कहा जा सकता है की जिस देश की करीब ७५ फ़ीसदी आबादी प्रतिदिन का अपना गुजारा २० रुपये से भी कम पर करती हो, उसी देश की महा-पंचायत के एक दिन के सञ्चालन का खर्च करोड़ों में हो और उसे भी तू-तू, मै-मै में गवां दिया जाता हो ! आंकड़ों की बाजीगरी से परे हटकर इस देश के वास्तविक विकास का अंदाजा सहज ही में लगाया जा सकता है. ऐसे में सप्ताह भर तक संसद के ठप रहने को आप आखिर किस नजरिये से देखेंगे ? निश्चित ही आज सामाजिक मूल्यों की दरकार इस देश को है, जो देश के विकास मार्ग को सैधांतिक दृष्टि से सुनिश्चित करे.
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