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लेकिन आज लोगों ने क़ुरबानी के त्यौहार का आशय एक जानवर को जिबह करना भर मान लिया है. इसमें कोई दो राय नहीं की अल्लाह ताला ने इंसान को उसके इमान का इम्तिहान लेने के लिए क़ुरबानी की व्यवस्था की थी ताकि समय-२ पर वह खुद को परखता रहे. लेकिन आज खानापूर्ति करने की व्यवस्था जोर पकड़ रही है. जो की ठीक नहीं है. अल्लाह ताला के रास्ते में अपनी सबसे प्यारी चीज की क़ुरबानी ये बताती है की हम इन्द्रियों के गुलाम नहीं है. इसी प्रकार जकात (दान) का इस्लाम में बहुत महत्तव बताया गया है. इंसान को जीवन में जकात अवश्य करना चाहिए, जो इस्लाम के मूल सिद्धांतों में से एक है. लेकिन आज सच्चाई कुच्छ और ही बयान कर रही है. आज जकात करने का मकसद अधिक शोहरत कमाने से लिया जाने लगा है.
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दुनिया के काफी देशों में मुसलमान बहुसंख्यक है और उनके कईयों में बहुतायत है. इनमे संसाधनों की भी कमी नहीं है. बावजूद इसके वहां मुस्लिम समुदाय पिछड़ा हुआ है, जिससे हम इंकार नहीं कर सकते. जो कुछ थोड़े बहुत है, वे सभी अनजानी शख्शियत लिए हुए इधर-उधर बिखरे पड़े है. जबकि हमारे देश में आज भी अग्रणी पदों पर बैठे चंद मुल्ला-मौलवी और इनके साथ राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले चंद नेता और उनके पहरुए वोट बैंक बना रहे है. लोग भेड़ चाल चलते रहे, इसके लिए ये यही चाहते है की लोग अशिक्षित रहे, संसाधनों से विमुख बने रहे. दूसरी ओर यही चंद लोग भौतिक सुख-सुविधाओं का अबाध उपयोग कर इस्लाम के मूल सिद्धांतों की ही धज्जियाँ उड़ाते नहीं थकते है. ये मुल्ला-मौलवी यही चाहते है की अधिकांश मुस्लिम समुदाय अशिक्षित ही रहे ताकि उनका सिक्का चलता रहे. अल्पसंख्यकों के विकास के नाम पर दी जाने वाली प्रत्येक वर्ष की सरकारी सब्सिडी या बहुत बड़ी धनराशी प्रयाप्त होती है की इस समुदाय का समुचित विकास हो जाये, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.
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हमारे देश के सन्दर्भ में बात करे तो हकीकत ये है की यहाँ के मुसलमानों की संख्या पडोसी पाकिस्तान से कहीं ज्यादा है. बावजूद इसके कुछ लोग वहां और अन्य देशों के मुसलमानों को ही श्रेष्ठ समझ यहाँ के मुसलमानों को उनका पिछलग्गू बनने की ही सलाह अधिक देते है. जबकि हकीकत ये है की विभाजन से पहले भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश एक ही देश थे. पाकिस्तान और बंगलादेश दोनों ही मुस्लिम बहुल देश है, बावजूद इसके वहां के मुस्लमान की हालत दिन पर दिन दयनीय ही अधिक होती जा रही है. और ये किसी से भी छिपा हुआ नहीं है.
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क़ुरबानी की बात करते समय हम सभी सच्चे मुसलमानों को सोचना होगा की अल्लाह ताला ने क़ुरबानी का असल मकसद क्या बनाया है और हमें किस प्रकार अपनी जिंदगी बसर करनी चाहिए. क़ुरबानी हमें समर्पण की भावना अपनाने को कहता है, ये मानवता के लिए, एक-दुसरे की सहायता के लिए कंधे से कन्धा मिलाकर चलने को कहता है. जिससे मुस्लमान और समाज दोनों ही आगे बढ़ सकें.
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आज कुछ समर्थ लोगों द्वारा अपनी समर्थता का नाजायज फायदा लिया जा रहा है, जिसकी इस्लाम सख्त मनाही करता है. होना तो ये चाहिए की जरुरत से ज्यादा समर्थता का उपयोग हा दूसरों की इमदाद के लिए करें. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. हकीकत में खुदा द्वारा हज़रत इब्राहीम के बेटे को बचाना इस बात का सबूत था की आदमी की जिंदगी जानवर से बेहतर और अधिक कीमती है. लेकिन इसके लिए हम्मे से कितने मुस्लमान ऐसे है, जो अल्लाह से रास्ते में अपनी सबसे प्यारी चीज (बेटे/बेटी) को कुर्बान कर रहे है. असल में हमारे मुल्ला-मौलवी भी इस दौड़ में सबसे पीछे है. क्या आप इससे इंकार कर सकते है की हमारे मुल्ला-मौलवी भी श्रेष्टतम सिरनी (प्रसाद) वाला घर ही अधिक तलाशते है. आज तो मुल्ला-मौलवी जिस एसो-आराम के आदि हो गए है, उसे देख यकीं ही नहीं है की ये लोग इस्लाम के रहनुमा है. जबकि इस्लाम केवल और केवल सादगी पसंद है.
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अभी ईद-उल-अजहा की नमाज के दौरान एक दृश्य देखने को मिला. नमाज में अभी वक्त था. मै जाकर बैठ गया. लोग धीरे-२ आ रहे थे. कुछ पहले से बैठे लोग जहाँ अल्लाह तआला को याद कर रहे थे, वहीँ कुछ दुनियावी बातों में भी मशगूल थे. कुछ टहल कदमी भी कर रहे थे. कुछ तो मस्जिद के बाहर ही खड़े थे, ताकि एकदम नमाज के समय ही आये, और नमाज अदा कर निकल लें. पहले से आकर मस्जिद में बैठ कर भला क्या फायदा ! धीरे-२ नमाज का समय करीब आ गया था. लोगों से मस्जिद पूर हो चुकी थी, यहाँ तक की कुछ को छत पर जाना पड़ा. इमाम साहब आते हुए दिखाई दिए. उन्होंने अपना जूता निकाल कर जैसे ही अन्दर जाने की कोशिश की, अचानक उन्हें याद आ गया की अगर जूता यहीं छूट गया तो गुम सकता है, चोरी भी हो सकता है. उन्होंने वहीँ मदरसे में पढ़ने वाले एक बच्चे को बुलाया और अपना जूता स्टाफ रूम की और भिजवा दिया. मुझे लगा की देखो जूते का कितना महत्तव है. मै सोच रहा था की अगर मौलाना साहब का जूता गुम होना होगा तो क्या वह स्टाफ रूम से ही गुम नहीं हो जायेगा ? और अगर नहीं होना होगा तो चाहे जहाँ फेंक दो, पड़ा ही रहेगा. यही तो खुदा की कुदरत है. मतलब इबादतगाह में तो हम कम से कम सच्चे बने. इमाम साहब ने तो अपने पास मौजूद विकल्प का उपयोग कर लिया, लेकिन बाकियों के लिए क्या विकल्प था ? वैसे ये व्यवस्था की बात है.
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किसी भी धर्मं की बात कर लीजिये, अक्सर हम देखते है की इबादतगाहों में होने के बाद भी हमारा ध्यान दुनियावी बातों की ओर ही अधिक होता है. सच कहें तो हम इबादत करने का नाटक ही अधिक करते है. असल में हम इस्लाम के असल मकसद से भटक गए है, हमने क़ुरबानी का गलत अर्थ ले लिया है. हम खानापूर्ति ज्यादा करने लगे है. ये सब इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है.
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