धर्मनिष्ठ आचरण से न केवल शत्रुओं का आशीर्वाद पाया जा सकता है वरन उनकी सहानुभूति भी प्राप्त की जा सकती है. कौरव और पांडव कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए आमने-सामने खड़े थे. अचानक युधिष्ठिर रथ से उतरे और कौरवों की तरफ पैदल ही बढ़ने लगे. बाकि सभी पांडव और श्रीकृषण भी उनके पीछे चल पड़े. भीम और अर्जुन ने चिंतित होकर पूछा महाराज क्या कर रहे है ? श्रीकृषण ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया और कहा- महाराज युधिष्ठिर हमेशा धर्मनिष्ठ आचरण करते है. इसलिए आप लोग शांत रहे. उधर कौरवों के दल में कानाफूशी होने लगी. आपस में कोई युधिष्ठिर को कायर कह रहा था तो कोई युधिष्ठिर की चाल कह रहा था. युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह के पास पहुंचकर उन्हें प्रणाम कर कहा- पितामह हम आपसे युद्ध करने के लिए विवश है. आप आज्ञा और आशीर्वाद दे. भीष्म पितामह बोले- युधिष्ठिर ! यदि तुम इस प्रकार मुझसे युद्ध की अनुमति नहीं मांगते तो मै तुम्हे पराजय का शाप दे देता. मै तो कौरवों की ओर से लडूंगा. मेरा आशीर्वाद है तुम विजय प्राप्त करो. तुम मुझ से जो चाहे मांग सकते हो. युधिष्ठिर ने कहा- तात, आप अजेय है, फिर हम विजयी कैसे हो सकते है. भीष्म ने यह जानने के लिए अगले दिन मिलने को कहा और बाद में अपनी पराजय का रहष्य भी बता दिया. इसी प्रकार युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य का आशीर्वाद ले कर उनकी पराजय का उपाय पूछा. द्रोणाचार्य ने कहा- यदि कोई बात कहकर मुझे निशश्त्र किया जा सके तभी मुझे मारा जा सकता है अन्यथा नहीं. युधिष्ठिर ने क्रिपाचार्य, शल्य से भी आशीर्वाद के साथ विजय के उपाय प्राप्त किये. धर्मनिष्ठ आचरण से उन्होंने न केवल शत्रु पक्ष की सहानुभूति प्राप्त की वरन महारथियों की पराजय के राज जानकार विजय भी प्राप्त की.
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