“तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा. अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है, तुझको किसी मजहब से कोई काम नहीं है, जिस इल्म ने इंसान को तकसीम किया है, उस इल्म के तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है, तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया, हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया, कुदरत ने तो बख्सी थी हमें एक ही धरती हमने कही भारत तो कही इरान बनाया नफरत जो सिखाये वो धरम तेरा नहीं है, इंसा को जो रौंदे वो कदम तेरा नहीं है, कुरआन न हो जिसमे व मंदिर नहीं तेरा इमाँ न हो जिसमे वो हरम तेरा नहीं hai तू अमन का और सुलह का ……” ———————————————————————————————————————————————— इस देश में तो खासकर, विरले ही होंगे, जिन्होंने इस गीत को नहीं सुना होगा. यह कहना की सुन कर कुछ ने इसको समझा नहीं होगा, थोडा नहीं बहुत अटपटा लगता है. इस गीत की व्याख्या करने के लिए इसको नहीं लिख रहा हूँ. बस चाहता हूँ की ये इसके तमाम आशय को हम हमेशा अपने जेहन में तरोताजा रखे. ———————————————————————————————————————————————— एक और बात मुझे सिद्ध लगती है की कुछ निश्चित ही है, जो जानकर अमन में आग लगाने की कोशिश करते रहते है. क्योंकि हम उन्हें ऐसा करने की खुली छूट देते है. हम थोड़ी देर के लिए मदहोश हो जाते है. ———————————————————————————————————————————————— अभी हाल ही में एक वरिष्ठ के साथ थोडा सा समय बिताने का अवसर मिला. काफी बातें भी हुयी और निश्चित ही धर्म की बात भी उमने शामिल थी. धर्म हमारे जीवन की दिशा तय करता है और इसीलिए हमारी हर बात इससे प्रभावित भी होती है. वे हिन्दू है और मै मुस्लमान लेकिन एक थाली में खा लेते है. मै उनके धुल बराबर भी नहीं लेकिन मुझे सम्मान से सराबोर कर देते है. बातों के बीच एक समय आया और उन्होंने बड़े सुखद चित्त से कह दिया- हमको लगता है ये हिन्दू-मुस्लमान का चक्कर या फिर जो भी ये हो रहा है, ये उसी परम शक्तिशाली ‘एक’ इश्वर का ही चलाया हुआ है. हमें इस चक्कर में न पड़कर सद्कर्म करते हुए अपना जीवन बिताना है, न ही इस सब में उलझना है. उन्होंने स्पस्ट कहा की यदि धर्म के नाम पर मुझसे कोई चवन्नी के सहयोग की भी अपेक्षा करेगा, फिर चाहे वह जिस धर्म को हो, मै उसकी अपेक्षाओं पर पानी ही फेर दूंगा. अर्थात मै धर्म के नाम पर चवन्नी का भी सहयोग किसी को भी नहीं दूंगा. मै उनका चेहरा देखता रह गया. ————————————————————————————————————————————————– आख़िरकार हम थक हार कर उस एक ही इश्वर की बात को स्वीकार करते है. फिर झगडा किस बात का हम करते रहते है ? ये मेरा-ये तेरा, ये सब आखिर किस लिए ?
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