“तुम न वी.आई.पी. हो, न मै तुमसे डरता हूँ और न ही तुम मेरे बाप हो…”
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एक वरिष्ठ है, बहुत से एहसान है, उनके मुझ पर. अक्सर मुझे कई परेशानियों या यूं कहे की आफतों से उन्होंने बचाया है. लेकिन पता नहीं क्यों अक्सर मेरी उनसे खटपट हो जाया करती है. वह भी छोटी-मोटी नहीं. विशालकाय, जो दिलों में गांठ बन जाती है. उनके भी और मेरे भी. जान के न मै करता हूँ और न ही वो. लेकिन फिर भी हो जाया करती है. कभी-२ सोचता हूँ की गुड में ही मक्खी लगती है और मीठे में ही कडवाहट आती है. कुछ हमारे आस-पास वालों की नजर भी ऐसी है की वे चाहते है की हमारे बीच खटपट हो. रस्सी के बट खुलेंगे तो वो कमजोर भी होगी. उसे तोडना और काटना भी आसान होगा. क्योंकि सभी बट मिलकर मजबूती जो देते है. ————————————————————————————————————————————————– लेकिन सबसे ज्याद चुभता है तो उनका अपने एहसानों का गिनवाना. मै कभी न तो इससे इंकार कर सकता हूँ और न ही उनका बदला दे सकता हूँ. लेकिन वो है की अपने एहसानों को गिनवाए बिना नहीं चूकते है. दिल में तीर की तरह लगती है उनकी बातें. अपना भूलकर दुसरे की कही पर तुरंत बदला लेना तो मानों उनकी फितरत में ही शामिल है. मुझे भी कहाँ बख्सते है वो. ————————————————————————————————————————————————– अभी हाल ही में गुड में मक्खी लग ही गयी. अगले दिन फोन कर सौरी बोला और कहा, सर आप दिल में रखते है, क्योंकि मेरे कहने का मतलब वो नहीं था, जो आप समझे. इतना कहना था की वो गुस्से में बोले- “तुम न वी.आई.पी. हो, न मै तुमसे डरता हूँ और न ही तुम मेरे बाप हो…”. मै तो जैसे गड़ ही गया. निरुत्तर हो गया उनकी ये बात सुन कर. अपने पर गुस्सा आया की क्यों मै उनके एहसानों को लेने के लिए विवश हो जाता हूँ. न लूं तो मारा गया, लूं तो ऐसे मरा की फिर जी न सकूँगा. सोचता हूँ, क्या मै अकेला हूँ जो किसी का एहसान लेता है ? क्या उन्होंने कभी किसी का एहसान नहीं लिया ? क्या मुझे अकेले को किसी की सहायता की जरुरत पड़ती है ? क्या वे बिना किसी की सहायता के ही इतनी बुलंदी पर बहुंच गए ? ————————————————————————————————————————————————- फिर सोचता हूँ शायद उनके साथ भी कुछ ने वैसा ही किया होगा. जब-२ ये उनका एहसान लेते होंगे, तब-२ वे इनको ऐसे ही सुनाते होंगे. क्योंकि इतिहास अपने को दोहराता है, ये भी तो सत्य है. इसीलिए आज ये उनसे कटे-२ से रहते है. क्या हमारी सामाजिक व्यवस्था में ये संभव है की हम बिना किसी की सहायता के, बिना किसी की मदद के अपना जीवन वैसे ही जैसे की हम चाहते है, व्यतीत कर सके ? मुझे लगता है की ये संभव ही नहीं है. जब ये श्रृष्टि ही पञ्च तंत्रों के मिलन से चल रही है, तो कैसे अपेक्षा करनी चाहिए की हम व्यक्तिगत संबल के आधार पर ही वह सब कर ले जो हम चाहते है. हम चाहे या न चाहे कभी न कभी हममे से हर कोई एक-दुसरे की सहायता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य ही लेता है. ये बात दीगर है की हम अपनी चपर से उसको मानने से इंकार कर दे. अब ऐसे में जब हर कोई सहायता और मदद लेता है तो क्यों नहीं ये समझता है की जैसे मैंने किसी पर कोई एहसान किया, या किसी की कोई मदद की तो वैसे ही मुझ पर भी तो किसी न किसी का एहसान होगा, मै भी तो किसी के एहसानों तले दबा होऊंगा.
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