हिंदी, ये वही हिंदी है, जो हमारी राष्ट्र भाषा है. हर साल हम औपचारिकता कर इस एक दिन इस राष्ट्र भाषा को सम्मान से गदगद कर देते है और फिर बाकि के दिनों के लिए उसे उसी पुराने संताप में तड़पने के लिए छोड़ देते है. हमारा मिजाज़ ही कुछ ऐसा बन गया है. ——————————————————————————————————————————————– सरकार के शीर्ष स्थानों पर तो अंग्रेजी पॉप डांस कर रही है और हिंदी लोक नृत्य की तरह किताबों, भाषणों आदि में गुम हो रही है. लेकिन फिर भी हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है. हिंदी की प्रसंगिग्कता आज यदि कहीं बची है तो वह है, साहित्य में. लेकिन वहां भी पोलिटिक्स हावी है. किस साहित्यकार या पत्रकार या फिर हिंदी में लेखन को जिन्दा रखने वाले को सम्मान से नवाज़ा जायेगा, ये उसके कर्म से ज्यादा पोलिटिक्स के रहमो-करम पर ज्यादा निर्भर करता है. भाई-भतीजावाद भी खूब फल-फूल रहा है. “अँधा बांटे रेवडिया, फिर-फिर अपने को दे.” इससे क्या आप इनकार कर सकते है ? निश्चित ही नहीं. इस देश के शीर्ष पर अनुवादकों के आभाव में यदि हिंदी पखवाड़े में हिंदी सामग्री को अंग्रेजी में उपलब्ध करवाया जाये तो आप क्या कहेंगे ? ये दुर्भाग्य है इस देश का और हिंदी भाषा का. बैठक में इससे नाराजगी जताते हुए एक माननीय ने अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री के टुकड़े-२ कर दिए और बैठक का बहिष्कार तक किया. अब पता नहीं इस सबसे हिंदी या फिर इसके चाहने वालों का कितना भला होने वाला है ? ——————————————————————————————————————————————— हिंदी की स्थिति की बात करें तो इससे अच्छी हालत तो प्रादेशिक भाषाओँ की है. कम से कम लोग बेझिझक, धड़ल्ले से अपने-२ स्थानों में उसका प्रयोग तो करते है. लेकिन हिंदी के इस्तेमाल में ज्यादा लाभ नहीं है. सरकार पट्टिकाओं पर हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहित भर करती है. अमलीजामा पहनाने में उसकी दृढ इच्छाशक्ति गुम हो गई है. हिंदी का प्रयोग शान का विषय भी नहीं रहा. अंग्रेजी वाले के सामने हिंदी बोलकर शान बढती नहीं घट जाती है, लेकिन हिंदी वाले के सामने अगर अंग्रेजी बोल दिया जाये तो सीना फक्र से चौड़ा हो जाता है. ——————————————————————————————————————————————— इस देश में मनाये जाने वाले ‘दिवसों’ को अब तो भुनाया जाने लगा है. कुछ लोग, कुछ संस्थाए इन दिवसों पर अपने प्रोग्राम आयोजित करके ‘हिंदी दिवस’ की आड़ में अपना उल्लू सीधा कर लेती है, और हिंदी का नाम हो जाता है. हिंदी तक ठीक से पढना-लिखना न जानने वाले भी निमंत्रण पत्र को अंग्रेजी में ही छपवाना शान समझते है. अंग्रेज तो इस देश को छोड़कर ६३ साल पहले चले गए लेकिन अंग्रेजी इस देश को छोड़कर पता नहीं कब जाएगी ? और फिर वर्तमान स्थति को देखकर तो ऐसा नहीं लगता है की अंग्रेजी के इस देश को छोड़कर चले जाने पर भी इस देश से अंग्रेजी का राज समाप्त हो पायेगा. जरुरत है हमें अपने दिलों से अंग्रेजी को निकलने की. हिंदी को औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि सच में सम्मान देने के लिए उसका जमकर उपयोग करने की और औरों से करवाने की. आखिर अपना अपना ही होता है और पराया पराया ही होता है. फिर ये भी तो है की बुरे दिनों में खोटा सिक्का ही काम आता है. फिर हमारे इस सिक्के की चमक तो देखते ही बनती है.
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