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“मस्ज़िद में इमाम साहब…!!!”

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भारत में मुस्लिमों की कुल आबादी करीब १९ करोड़ के आसपास है. इस देश में मुस्लिम सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से काफी पिछड़ा हुआ है, इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता. सरकारी और गैर सरकारी जगहों में मुस्लिमों की अच्छी हिस्सेदारी २ या ३ फ़ीसदी से ज्यादा नहीं है. बाकि तो बस गुजर बसर में ही अधिक लगे हुए है. इन सब के मूल में अशिक्षा एक बड़ा कारन है. वैसे तो इस्लाम में स्पस्ट तौर पर मुस्लिमों को भरपूर शिक्षित होने की बात पुरजोर तरीके से कही गयी है. दुनिआ के किसी भी कोने में शिक्षा की प्राप्ति के लिए जाना चाहिए. लेकिन कुछ लोगों ने शिक्षा से आशय केवल दीनी तालीम से ही ले रखा है और यही बात वे दूसरों को भी बताते है, जिससे काफी लोगो में दुनियावी तालीम के प्रति एक दूसरा ही नजरिया बन जाता है और वे इसे हासिल करने का मतलब इस्लाम के विरुद्ध समझते है.
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इस्लाम के शीर्ष पर जो लोग बैठे है, वे इस बात को भली भांति जानते और समझते है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे है. वैसे इसमें कोई दो राय नहीं की वर्तमान में इस देश का मुस्लिम समुदाय काफी तरक्की कर रहा है. सरकारी, गैर सरकारी जगहों में उसकी हिस्सेदारी बढ़ रही है. अभी हाल ही में देश की सर्वोच्च परीक्षा पास कर जम्मू कश्मीर के युवा ने देश का, अपना, मुस्लिमों का किस प्रकार नाम रोशन किया हम सब ने देखा और सुना.
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इसी तरह हम यदि इस बात पर विचार करे की शीर्ष पर बैठे लोग मुस्लिमों में जागरूकता फ़ैलाने के लिए आगे आये तो काफी हद तक सुधार जल्दी संभव हो सकता है. इसमें एक अहम् रोल निभा सकते है- मस्जिद के इमाम साहब. हर मस्जिद में एक इमाम होता ही है. जिन जगहों पर इस्लामी तालीम के लिए अलग से मदरसों की व्यवस्था नहीं है, वहां मस्जिदों में ही इमाम साहब नमाज पढ़ाने से साथ ही उस जगह के बच्चो को इस्लामी तालीम भी दिया करते है. यदि वे बच्चो को और उनके परिवार वालों को सामाजिक और आर्थिक जगहों में भी अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए और दुनियावी शिक्षा के लिए भी प्रेरित करे तो बहुत ही असरदार माहौल बन सकता है. खासतौर से नमाजो के समय, जब लोग मस्जिदों में एकत्र होते है, तब उन्हें धार्मिक बातें बताने और चिंतन करने के साथ ही थोडा-सा समय इस ओर भी देना होगा. इसका असर ये होगा की धीरे-2 लोगों में जागरूकता आएगी और वे इस ओर अपनी सहभागिता बढ़ाएंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है.
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अभी हाल ही में कुछ माह पहले मैं जुमे की नमाज़ पढने के लिए गया हुआ था, जहाँ राष्ट्रीय पहचान के लिए देश भर में चलाये जा रहे राष्ट्रीय जनगड़ना के बारे में इमाम साहब लोगों को बता रहे थे. ये सुन कर बहुत अच्छा लगा की इमाम साहब लोगों को इस प्रकार की बातें भी बता रहे है. इमाम साहब बता रहे थे की किस प्रकार ये जनगड़ना महत्तवपूर्ण है. इमाम साहब कह रहे थे की जनगड़ना के लिए भरे जाने वाले फार्म को खूब अच्छी तरह पढ़ और समझ कर ही सही-2 सूचना उसमें भरें, साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा की यदि पढना न आये तो किसी जानने वाले से पढवा ले और समझ लें. मैं सोच रहा था की अब इमाम साहब ये अवश्य कहेंगे की आप सब लोग धार्मिक शिक्षा की तरह ही सामाजिक शिक्षा में भी आगे आये ताकि आपको दुसरे का मुह न ताकना पड़े, आप इतने शिक्षित हो जाये की खुद हर बात को समझ सकें लेकिन इमाम साहब ने अपनी बात वहीँ पर समाप्त कर दी. बीच में से अचानक आवाज आई की यदि किसी का पहचान कार्ड नहीं बन पाया तो वह पाकिस्तानी समझा जायेगा. निश्चित ही इस जनगड़ना का अपना विशेष महत्तव है लेकिन उपरोक्त बात कहना सीधे ही अशिक्षा का परिचायक है. ऐसे में क्या ये नहीं लगता की इमाम साहब को आगे आकर लोगों को जागरूक करना चाहिए? अक्सर देखा जाता है की लोग अन्धानुकरन के चलते धार्मिक कार्यों में भी वास्तविकता से इतर एक-दुसरे को देखा-देखि ही अधिक करते है. जब कभी जानकारों से वास्तविकता सुनने और समझने का अवसर मिलता है तो लगता है की हम वास्तव में कितने गलत है. लोग समूह में अक्सर देखा-देखि ही अधिक अनुसरण करते है, जिसका उपाय तो ये ही हो सकता है की उन्हें नियमित रूप से सही जानकारी देते रहनी चाहिए. जिससे उनका इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर सकते है.

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