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“क्या काबिल और कामयाब एक साथ हो सकते है ?”

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“क्या काबिल और कामयाब एक साथ हो सकते है ?” एक दिन अचानक मेरे वरिष्ठ सहकर्मी मुझसे ये प्रश्न पूछ बैठे. जल्दी में मैंने भी जबाब दे दिया लेकिन वे संतुस्ट नहीं हुए और कहने लगे ऐसे कैसे बोल रहे हो, तर्क के साथ बताओ. मै रुका और अपने भूसे भरे दिमाग से थोडा सा भूसा निकाल फिर से उत्तर दिया. लेकिन बात बनी नहीं. अंततः उन्होंने ये बात कही की इस प्रश्न को जागरण जंक्सन पर डाला जाये, और इस मंच से इसके उत्तर की खोज की जाये. न कहने का तो सवाल ही नहीं था. विभिन्न विचारों से ओत-प्रोत इस मंच पर ज्ञान का भंडार है, इसमें कोई शक नहीं.
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असल में उनका कहना है की काबिल तो कामयाब होगा ही लेकिन कामयाब काबिल भी हो, ये जरूरी नहीं है. मतलब साफ़ है की उन्होंने तमाम कामयाबों की काबिलियत पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. वे कहना चाहते है की बहुत से लोग जो कामयाब होकर समाज में बहुत रोब झाड़ रहे है, उनमे से काफियों के पास काबिलियत यानि योग्यता है ही नहीं या फिर कामयाबी की तुलना में कम है. मै सोच रहा हूँ की यदि उनके पास काबिलियत नहीं होती या कम होती तो भला वे कामयाब कैसे बनते या फिर काबिलियत से अधिक कामयाबी कैसे हासिल कर पाते ? और कामयाब बने है तो जाहिर है की उनके अन्दर काबिलियत भी होगी ही. लेकिन उनको इससे इत्तेफाक नहीं है. आगे उन्होंने जोड़ा की बहुत से लोग जो लक के सहारे कामयाबी हासिल कर जाते है, ये जरूरी नहीं की उनमें योग्यता भी हो. बहुत से लोग काबिल होने के बाद भी लक के साथ न होने पर कामयाबी हासिल नहीं कर पाते.
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ये सुन कर मझे अपने एक आदरणीय परिचित की मेरे परिप्रेक्ष्य में कही एक बात याद आ गयी- “आपके अन्दर ये बात है, मै कह रहा हूँ न, लेकिन अभी आपको प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है.” बहुत बार उन्होंने मुझे सहारा लगाया, लेकिन शायद मेरे ही अन्दर कमी होगी, तभी मुझे प्लेटफार्म नहीं मिल प् रहा है. इसी मंच पर एक वरिष्ठ के ब्लॉग पर मेरी एक टिपण्णी पर एक सज्जन ने मुझे कहा था- “आपकी तो आदत है, दुसरे का मुह ताकने की.” कई बार में अपने अन्दर झांकता हूँ तो मुझे भी लगता है, की वे सही कह रहे है, मुझे दुसरे की और टुकतुकी लगाने की आदत हो गई है. तो आप लोगों को क्या लगता है की “क्या काबिल और कामयाब एक साथ हो सकते है ?”

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