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मुझे तो रेल मंत्रालय ही चाहिए !

Proud To Be An Indian
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दुनिया का सबसे बड़ा रेलतंत्र भारत का है लेकिन इसकी हालत सबसे बुरी है. या यूं कहिये की ऐसी बना दी गई है. कभी नैतिकता की खातिर रेलमंत्री रहे शाश्त्री जी ने एक छोटी सी रेल दुर्घटना की खातिर स्वयं ही अपनी कुर्सी को त्याग दिया था. ये नैतिकता ही है की हम आये दिन उसकी दुहाई देते रहते है लेकिन आज इस नैतिकता की किसे और कितनी परवाह है ! ये किसी से भी छिपा नहीं है.

अभी हाल ही में घटी दुर्घटना ने भले ही किसी का बेटा, पति, बेटी, बहु या फिर अन्य रिश्तेदार छीन लिया हो, लेकिन इससे रेल मंत्रालय को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. अब तो एक ट्रेंड सा बन गया है की देश में किसी भी प्रकार की कोई दुर्घटना घटे, तुरंत ही मुयावाजे की घोषणा कर दो, फिर चाहे वह सालों-साल मिले या नहीं, ये बाद की बात है. लेकिन कम से कम उस समय तो लोगों का मुह बंद हो ही जायेगा. फिर भला कौन पूछता है की किसकी गलती से दुर्घटना घटी ! भला खड़ी ट्रेन में पीछे से जोरदार टक्कर लगना यूं ही तो नहीं घट जाता है ? आखिर ऐसी भयानक गलतियाँ कैसे हो जाती है ? फिर क्या दोषियों को सजा दी जाती है ? नैतिकता की खातिर क्या सम्बंधित अपनी कुर्सी छोड़ते है ? क्या हम उन्हें मजबूर कर पाते है ?

एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष औसतन ३०० छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएं होती है. ऐसे में यदि यह कहा जाये की हमारे देश में रेल दुर्घटनाओं के प्रति हमारी सरकार गंभीर नहीं है तो कुछ गलत न होगा. इसी वर्ष रेल बजट के दिन उड़ीसा में जाजपुर के नजदीक रेल दुर्घटना में करीब १५ लोग मरे गए थे. अगस्त २००८ में सिकंदराबाद से काकीनाडा जा रही गौतमी एक्सप्रेस में आग लगी जिसमे करीब ३२ लोग मरे माये और कई घायल हुए. अप्रेल २००७ में तमिलनाडु में रेलगाड़ी मिनी बस से जा टकराई जिस्मी ११ के करीब लोग मरे गए. अप्रेल २००५ में बड़ोदरा के पास साबरमती एक्सप्रेस तथा मालगाड़ी की टक्कर में करीब १७ लोग मरे गए और ८० के करीब घायल हुए थे. फ़रवरी २००५ में महाराष्ट्र में रेलगाड़ी और ट्रेक्टर ट्राली की टक्कर में लगभग ५० लोग मरे गए और ५० ही के करीब घायल हुए. जून २००३ में रेल दुर्घटना में ५१ यात्री मारे गए और कई घायल हुए थे. जून २००३ रत्नागिरी के पास एक विशेष यात्री गाड़ी के डिब्बे पटरी से उतारे, ५१ यात्रियों की मृत्यु हुए. मई २००३ में लुधिअना के पास फ्रंटियर एक्सप्रेस में आग लगी, ३८ लोग मरे गए. सितम्बर २००२ में राजधानी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त, १२० लोग मरे गए. जून २००१ मंगलोर-चेन्नई एक्सप्रेस नदी में जा गिरी, ५९ यात्री मरे गए. मई २००१ उत्तर प्रदेश में ट्रेन रेलवे क्रासिंग पर कड़ी बस से टकराई, ३१ लोग मरे गए. दिसंबर २००० हावड़ा मेल तथा मालगाड़ी की टक्कर में करीब ४४ की मौत. अगस्त १९९९ ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस अवध-असम मेल से टकराई, २८५ मरे और करीब ३१२ घायल हुए थे. जुलाई १९९९ ग्रांड ट्रंक मेल मालगाड़ी से टकराई, १७ मरे गए तथा २०० घायल. नवम्बर १९९८ फ़्रन्तिएर मेल सियालदह एक्सप्रेस से टकराई १०८ की मौत तथा १२० घायल हुए. इन सबसे अधिक चिंताजनक आज जो है वह यह की नक्सली आज रेलवे को सबसे अधिक निशाना बना रहे है लेकिन सरकार से उनसे निबटते नहीं बन पा रहा है.

उपरोक्त तथ्य क्या दर्शाते है ? भारतीय रेलवे के करता-धर्ताओं को शायद खुद की ही अधिक चिंता है. भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी रेल व्यवस्था है. इसमें प्रतिदिन करीब सवा करोड़ लोग यात्रा करते है. तो क्या ऐसे में हमारे करता-धर्ताओं की जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती ? दुर्घटना और इसके बाद मुआवजा, चिंता और रोष व्यक्त करने का दौर, फिर ‘ढाक के वही तीन पात’. अतः क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए की राजनीती की रेलमपेल में भारतीय रेल गोते ही अधिक खा रही है ? तब भी कुछ लोगों को बजाय शर्म आने के, वे तो सीना तान कर, हठ करके रेल मंत्रालय की ही मांग करते है. वे उसकी देखरेख कर सकने में या फिर उसको सक्षम तरीके से चला पाने में आखिर कितने सफल है, क्या ये मुद्दा नहीं होना चाहिए ? क्या ये सब यूं ही चलता रहेगा ? फूलों के हार के साथ ही काँटों का हार भी इन करता-धर्ताओं को पहनाना हमें कब आएगा ?

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