“भूख से तड़प-२ कर दम तोड़ते भारतीय बनाम सरकारी गोदामों में बर्बाद होता हजारों टन अनाज…”
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कृषि प्रधान देश का खिताब भले ही भारत के पास हो, सोने की चिड़िया भले ही भारत को कहा जाता रहा हो, विश्व गुरु भारत ही क्यों न हो लेकिन आज हालत ये है की देश में लोग भूख से तड़प-२ कर दम तोड़ रहे है. दूसरी ओर सरकारी अमले की लापरवाही के कारण सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है. सरकार की माने तो विगत दस माह में हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश के साथ-२ अन्य कई राज्यों में ४००० टन अनाज नस्ट हुआ है. विशेषज्ञों के अनुसार नस्ट हुए अनाज से करीब ४२००० से अधिक लोगों का पेट एक साल तक भरा जा सकता था, वह भी दो वक्त. माना जा रहा है की नस्ट हुए अनाज की कीमत २.२१ करोड़ रूपए थी. सोने पे सुहागा ये की ख़राब हुए अनाज को निपटाने में सरकारी अमले को १.७५ लाख रूपये खर्च करने पड़े. विशेषज्ञों के अनुसार शहरी स्थानों के कामगार जहाँ प्रतिदिन २२५ ग्राम अनाज खाते है, वहीँ ग्रामीण स्थानों में रहने वाले कामगार को दो वक्त के लिए २७५ से ३०० ग्राम अनाज की जरुरत होती है. जहाँ सामान्य शहरी व्यक्ति प्रतिदिन १६० से १७० ग्राम और ग्रामीण स्थानों के लोगों के लिए २०० से २१० ग्राम अनाज दो वक्त का पेट भरने के लिए पर्याप्त होता है. कृषि मंत्री शरद पंवार ने पिछले दिनों माना की सरकारी भण्डार गृहों में छमता से ज्यादा भंडारण होने की वजह से अनाज की हिफाजत नहीं हो पा रही है. खुले में भण्डारण के बाद अनाज की ढुलाई आदि के दौरान वार्षिक हजारों टन अनाज ख़राब हो जाता है. गत साल रिकार्ड पैदावार के बाद गेहूं का २५३.८० लाख टन और चावल का २६० लाख टन भण्डारण किया गया. इसमें अकेले पंजाब में गेहूं का भण्डारण १०७.१९ लाख टन, उत्तर प्रदेश में ३८.८२ लाख टन और हरियाणा में ६९.१२ लाख टन का भण्डारण किया गया. एक विकासशील देश में करता धर्ताओ द्वारा ऐसी लापरवाही माफ़ी के लायक नहीं है. क्यों न सम्बंधित लोगों की मोटी-२ तनख्वाहों में से इस नस्ट हुए अनाज की कीमत वसूल के जाय? फिर वे चाहे कृषि मंत्री शरद पंवार ही क्यों न हो. किसान अपना अनाज देश को इसलिए देता है की उससे सारे देश का पेट भरे. इसलिए नहीं की सम्बंधित नेता, अधिकारी और कर्मचारी लापरवाही बरत कर उसे नस्ट करे. क्या ये नुक्सान नेता जी का हुआ है? क्या ये नुक्सान सम्बंधित अधिकारी और कर्मचारी का हुआ है? वे तो मोटी-२ तनख्वाहों से मोटी रकम चुका कर महंगे दामों पर भी अनाज खरीद लेंगे लेकिन अनाज कम होने पर महंगाई का खामियाजा आम आदमी को भोगना पड़ेगा. क्या इतने बड़े देश में पेट को भरने वाले अनाज के लिए भण्डारण की पर्याप्त सुविधा जुटाना बहुत बड़ा काम है? सरकारी स्तर पर इतने बड़े-२ काम होते है, आयोजन होते है या यूं कहें की सभी काम तो हो रहे है. फिर मूलभूत जरूरतों पर लापरवाही क्यों होती है? किसे जिम्मेदार माना जाना चाहिए और कौन लेगा सही से काम करने की जिम्मेदारी? या फिर ‘ढाक के तीन पात’ वाली कहावत बदस्तूर चलती रहेगी?
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