“सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों में टूटते पारंपरिक सयुक्त परिवार…”
Proud To Be An Indian
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विगत कुछ दसकों से जिस प्रकार भारतीय समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन हुआ है उसका सबसे ज्यादा नुक्सान व्यक्ति के आधार, उसके परिवार पर पड़ा है. जिस प्रकार एक मकान का टिकाउपन, उसकी मजबूती, उसकी सुन्दरता आदि मकान की बुनियाद पर निर्भर होता है उसी प्रकार से हम मनुष्यों द्वारा की जाने वाली सभी क्रियाओं को आधार देने में हमारा परिवार ही भूमिका निभाता है. इसीलिए कहा जाता है की “परिवार व्यक्ति का आधार होता है.” परिवार को प्रथम पाठशाला भी कहा गया है. जब एक छोटा बच्चा सर्वप्रथम समाज के संपर्क में आता है तो वह वही सब क्रियाये करता है, जिनको की उसने अपने परिवार से सीखा है. जब पहली बार किसी व्यक्ति के प्रति समाज अपनी राय कायम करता है तो उसके पीछे १०० फीसदी हाथ उसके परिवार का होता है. आजादी के बाद भारतीय समाज ने दुनिया की तरफ देखा तो अपने को बहूत पीछे पाया, बस यही से हम उनके पिछलग्गू बन गए. उल्टा-सीधा जो भी देखा, बिना विश्लेषण के आत्मसात करते गए. जिसमे पहली बात थी आर्थिक रूप से ससक्त होना. लोगो ने गाँव की तरफ से रुख किया सहरों का. सहरो ने पूंजीपतियों का अँधा अनुकरण किया. पाश्चात्य सैली ने सहरो को अपनी गिरफ्त में जो लिया तो फिर ये बाहर नहीं निकल पाए. वैसे तो करीब करीब ७० फीसदी भारतीय आबादी आज भी ग्रामीण ही कहलाती है लेकीन वह सहरो के धुंधलके वाले आवरण से ढंकी हुई है. सहरों ने गाँव में भी अपनी छाप छोड़ दी है. गाँव की भारतीय संस्कृती में एक खुसबू थी जो बारिश की पहली फुहार पर मिटटी की भीनी भीनी महक की तरह आज भी अपनी खुसबू छोडती महसूस होती है. हरियाली के बीच बसे गाव. एक दुसरे के इतने करीब जितने की आज सहरो में बनी कोठियो के कमरों की दूरी होती है. काक्रीट से दूर लकड़ी, घास फूस और खपरैल के इस्तेमाल से बने घर. जिनकी छतों पर अधिकांश फल और सब्जियों की बेले अपनी छटा बिखेरते थे. ग्रामीणों में अपनत्व की भावना घर जैसी होती थी. सभी तरफ हरियाली, प्रेम भाव. मशीनों के जाल से मुक्त, हम अपने सभी कामो को मनुष्यों और जानवरों की सहायता से बखूबी कर पाते थे. ग्रामीण भारतीय संस्कृति पर यहाँ कवि कामेश्वर प्रसाद डिमरी की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है-
सौंधी सुगंध थी, मेरे गाँव की- निश्छल बयार थी, स्नेह छाव की. बयार न बहती, तो याद क्यों आती- उसकी यहाँ हूँ, मै गाती-गाती.
बैलों की जोड़ी, खोई निगोड़ी- कैसी थी भूरी धड़ की भगोड़ी. भूली वो हुर-हुर, बैठी बैलगाड़ी- टूटा जो हल, टूटी नाडी की नाडी.
ताऊ ताई सुनु, मै तरस रही हूँ- अंकल नया सब्द, मै सुन रही हूँ. लौटूंगी नहीं अब, सब्द सजाय- काका ओ काकी कौन बुलाए.
पारंपरिक परिवार में संयुक्त परिवार का चलन था. जिसमे तीन से अधिक पीढ़िया एक साथ प्रेम और सम्मान के साथ रहती थी. दादा दादी की कहानियो, बुजुर्गो के अनुभव की शिक्षा, ताऊ ताई की प्रेम भरी झिड़क और इनके बीच बच्चो का जो पालन पोषण होता था वह व्यक्ति के जीवन में मजबूत और टिकाऊ बुनियाद का काम करता था. जो सारे जीवन उसका साथ निभाता था. शादी के बाद नवयुगल बुजुर्गो के आशीर्वाद के साथ उनके मार्गदर्शन में गृहस्थी संभालना सीखता था और फिर उसी सीख को वह आगे वाली पीढीयो को हस्तांतरीत करता था. आज इसका सर्वथा अभाव है. आज सामजिक विकृतियों की बात करे तो इनमे एकल परिवार का जनम, परिवार में टूटन, अपनेपन की भावना का ख़तम होना, तमाम परेशानियों के बीच मानशिक संतुलन खोना, मशीन बनकर रह जाना, अन्य तमाम बातें हमें घेरे हुए है. विश्व स्वास्थय संगठन के अनुसार भारत दुनिया में सबसे अधिक आत्महत्या दर वाले देशो में से एक है. स्वस्थ्य मंत्रालय के मुताबिक औसतन एक लाख २० हजार लोग हर साल आत्महत्या करते है, जिनमे ३०-४० साल के लोगों की संख्या अधीक है. एकल दांपत्य जीवन बिता रहे लोगों में वाद-विवाद के साथ ही दहेज़ विवाद भी एक बड़ी समस्या है. देखने में आता है की जहा कुछ लोग वास्तव में दहेज़ से पीड़ित होते है तो वही कुछ के द्वारा इसका लाभ लेने की लिए दहेज़ कानून का नाजायज फायदा भी उठाया जाता है. फल्स्वरून जीवन में कस्ट और तनाव होता है. जिसके कारण काफी लोग आत्महत्या कर रहे है. साल २००८ में करीब २२२७ युवावों ने आत्महत्या कर ली तो वही पढाई में सफलता न मिलने के कारन २१०० लोगों ने ऐसा कदम उठाया. पारिवारिक समस्या से परेशांन होकर १०३५७ लोगों ने आत्महत्या की, तो बीमारी के कारन ७६०८ और प्रेम में असफल होने पर ३००० लड़के लड़कियों ने आत्महत्या की. आंकड़ो की माने तो लडकियों की तुलना में लडको ने अधिक आत्महत्या की. ३० साल से कम उम्र की २१४७२ औरतों में १०८५० गृहणिया थी. जहर खाकर मरने वालों में १६००० से अधिक युवक थे. फांसी लगाने वालों में १५००० और आत्मदाह करने वालों में ५००० लोगो की बात सामने आई है. तो क्या ऐसा नहीं लगता की यह टूट रहे भारतीय समाज की दास्तान है. हमारा भविष्य तभी सुरक्षित रहेगा जब हम पारंपरिक सयुक्त परिवार में प्यार और अपनेपन की डोर से बंधे रहेंगे. सय्युक्त परिवार के अभाव में वो तमाम बातें लोगो को नसीब ही नहीं हो पाती है, जिसकी हमें जरुरत है. अब बड़ी बड़ी कोठिया तो है लेकिन दादा दादी, नाना नानी चाचा चाची, ताऊ ताई की प्यार भरी मीठी आवाजे नहीं है. अब किस्से कहानियों की जगह केबल और कम्पुटर ने लिया है.
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