“यार! आज मैंने तेरे लिए मुर्गे का इंतजाम कर दिया है!!!”
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दिहाड़ी स्थल पर काम ज्यादा चल रहा है. मतलब बॉस का पेट लगातार फूलता जा रहा है. लेकिन मेरे साथ साथ बाकी काम करने वालों को भी बहुत अधिक नहीं मिल रहा है. आशय यह की एक ओर मलाई और दूसरी ओर छाछ . खैर, काम करते करते रात के साढ़े ९ बज गए थे. बस अब तो भागने के लिए मौका तलाश रहा था. बाकी के तो चले गए, मै फंसा रह गया. अचानक मुझे फोन आता है. फोन एक मित्र का था. उन्हें एक अति आवश्यक कार्य के लिए कुछ टाइपिंग करवानी थी. सारा बाज़ार बंद हो चूका था. मित्र काम आ गया. मैंने भी कह दिया की दिहाड़ी स्थल पर ही आ जाओ. बॉस ने टेढ़ी नजर से देखा. मैंने कहा- आ जाने दीजिये. मित्र बैठते ही- “यार! आज मैंने तेरे लिए मुर्गे का इंतजाम कर दिया है!!!” मै मुस्कुरा गया. सर पर सवार दुसरे लोग भी हंसने लगे. उनके जाते ही मित्र का काम फुर्ती के साथ करना पड़ा, क्योकि उन्हें वे कागज़ सत्यापित करवाने के लिए वकील के यहाँ जाना था. मित्र हो तो ऐसा! काम के पैसे बॉस के लिए अलग निकाले ओर मेरे लिए पूरे 100 का नोट अलग से निकाला. तभी अन्दर से आवाज आई- “अबे मुर्ख सौ रूपये के लिए अपना ईमान बेच रहा है.” फिर तो एक के बाद कई आवाजे आई. ये कैसी दोस्ती है की मजबूरी में काम आने के लिए कई गुना पैसे लिए जाय? क्या ये एक १०० रूपये का नोट आगे के जीवन में मुझे कीचड में नहीं धकेल देगा? एक १०० रूपये का नोट आखिर कितने दिन काम आएगा? जिस दोस्त ने एक १०० रूपये का नोट दिया है, उसकी नजर में अन्दर से क्या वही इज्जत रह पायेगी? क्या इसका जिक्र वह अन्य जगह नहीं करेगा? तुरंत आत्मा की धिक्कार सुन कान खड़े हो गए. खुद को संभाला ओर मित्र से बड़ी विनम्रता से कहा- “इसकी आवश्यकता नहीं है.” मित्र ने बिना देरी के नोट जेब में रखा, दिहाड़ी स्थल से बाहर जाने का रास्ता पूछा और ९ – २ – ११. ऊपर वाले का शुक्र अदा करके मैंने संतोष की सांस ली. घर जाते हुए रस्ते भर उस मित्र को गरियाता ही गया, की आज उसकी वजह से इमान ख़राब हो जाता. फिर सोचा की ऐसे ही अन्यो के साथ भी होता होगा. बहुत से अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाते होंगे और यह उनकी आदत में शुमार हो जाता होगा. यु बनते है रिश्वतखोर और ऐसे बनाते है रिश्वतखोर. त्योहारों पर हम अधिकारियो को उपहार दे कर क्या करते है? अधिकारी – कर्मचारी को काम के बाद चाय पीने के हम ही उन्हें देते है. और फिर कल उनका मुह बड़ा हो जाता है. फिर हम चिल्लाते है- “यार, वह तो रिश्वत मांग रहा है.”, ये काम करने के लिए तो इतने लगेंगे. अब आप ही विचारे की किसे सुधरने की जरुरत है? दूसरे को या फिर स्वयं को?
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