सोनिया जी ने सोचा की विश्व महिला दिवस पर संसद में महिला आरक्षण बिल पास करवा के एक एतिहासिक कदम उठा लेंगी लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में फिर एक बार मुट्ठी भर सांसदों ने लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जिया उड़ा डाली. विरोध करने के बहुत से सभ्य तरीके होते है. लेकिन कुछ सांसदों को तो ये सलीका आता ही नहीं. जिस संसद का एक-एक सेकण्ड कीमती हो उसको दिन में कई कई बार स्थगित करवा के सांसद क्या सिद्ध करना चाहते है? इनकी उदंडता को शांत करने के लिए कठोर कदम उठाने की जरुरत है. प्रेसिडेंट-वइस प्रेसिडेंट को ये कुछ समझते ही नहीं. यदि कोई आपत्ति है तो उसे सलीके से सब्भ्यता पूर्वक बात करके सुलझाना चाहिए. क्या ऐसे में दुनिया भर में हमारी साख नहीं गिरती है? ये बिलकुल ठीक है की कोई भी बिल यु ही पास नहीं होना चाहिए, उस पर पूरी चर्चा होनी चाहिए. उसके सभी पक्षों को देखना जरूरी है. लेकीन सलीके से. क्यों इनके लिए कोई अनुशाशन नहीं होना चाहिए? क्यों इन्हें अनुशाशान्हीनता पर दंड नहीं मिलना चाहिए? जब जी चाहता है वाक् आउट कर जाते है, हल्ला मचाते है, घेराव करते है, सदन को स्थागीत करवाते है. ये छीछालेदर कब तक होती रहेगी?
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