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“दे नहीं रहा है, दुनिया का टिटिम्मा बतिया रहा है.”

Proud To Be An Indian
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मेरे एक परिचित है. अद्ध्यापन करते है, डाक्टरेट है, कई पुस्तके लिख चुके है तथा कईयों का अनुवाद कर चुके है. लेकिन अगली पुस्तक लिखने पर वे स्वयं को लेखन कला में निपुणता से बहुत दूर बताते है और कहते है की पुस्तक लिखना कोई बच्चो का खेल नहीं है. यदि कुछ लाइन लिखने पे मै स्वयं को पढ़ा लिखा कहू तो जाहिर है आप हसेंगे. आपका हँसना लाजिमी है. यह बात कमोबेश मै भी जनता हु और इसीलिए पहले मै एक साधारण मजदूरी वाला हूँ.
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एक दिन की बात है, मै मजदूरी स्थल पर पंहुचा और अपना खटारा दो पहिया वाहन खड़ा किया. सुबह के करीब ९-३० बजे का समय था, मै अपना खटारा खड़ा करके मजदूरी स्थल की ओर बढ़ ही रहा था की एक १०-१२ साल की लड़की हाथ में तेल का कटोरा लिए मेरी ओर बढ़ी और ‘शनि दान’ मांगने लगी. अभी मै अपने पाँव रोक पाता की एक के बाद दो और अमूमन उसी उम्र की लडकिया हाथ में तेल के कटोरे के साथ मेरे समक्ष आ कर खड़ी हो गई. सभी ने एक स्वर में ‘शनि दान’ माँगा. मै रुक गया. मैंने पूछा- तुम्हारे नाम क्या है? उनमे से एक लड़की ने कहा- मेरा नाम जहाना, ये शकीना और ये बानो है. मैंने कहा- अरे! तुम तो मुसलमान हो, फिर ‘शनि दान’ कैसे मांग रही हो? लड़की ने जवाब देते हुए कहा- वो तो हम नाम बदल लेते है, कौन सा किसी को पता चलता है. मैंने पूछा- तुमने नाश्ता किया? नहीं, गुरूद्वारे मै गए थे तो एक छोटे से आदमी ने डांटकर भगा दिया. मैंने पूछा- तो क्या तुम लोग अभी तक भूखी हो? नहीं, हमने एक-एक रूपये के बिस्कुट खाए है. मजदूरी स्थल से लाला जी मुझे ताक रहे थे लेकिन मुझे उन लडकियों से बात करना अच्छा लग रहा था.
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मेरे और सवाल पूछने पर पता चला की वे मूलतः बिहार की रहने वाली है और परिवार समेत यहाँ कही डेरा डाले हुए है. मेरे उन तीनो के आपस के रिश्ते के बारे में पूछने पर पता चला की दो तो आपस में बहने है जबकि एक उनकी बड़ी बहन की बेटी है. मैंने पूछा- तुम्हारे पिताजी क्या काम करते है? एक ने बताया की अब वे इस दुनिया में नहीं है. मैंने कारण पूछा तो एक ने ख़त से कहा- उन्हें केंसर था. वह बहुत गुटका और तम्बाकू खाते थे. यह बताते ही की पिताजी केंसर से किस प्रकार पीड़ित थे, उसने अपने मुह और गले की ओर हाथ से इशारा किया. उसके दांतों की ओर इशारा करते ही मैंने कहा- तू भी तो गुटका खाती है. नहीं भैया, उसने तर्क देते हुए जवाब दिया. दिन भर में कितना कमा लेती हो मैंने पूछा ? पचास-पचास रूपये कमा लेते है. क्या करती हो पैसो का? इस पर एक बोली- शाम को घर का राशन वगैरा ले जाते है.
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बड़े होकर क्या भीख ही मांगोगी? एक लड़की बोली- नहीं भैया, बड़े होकर सामान बेचेंगे. क्या बेचेगी, मैंने पूछा? शीशा बेचेंगे, कंगी बेचेंगे, चूड़ी बेचेंगे और पावडर बेचेंगे. बाहर से लाकर. १०-१२ साल की लडकियों को करीब उनकी ही उम्र की उनकी बहन की बेटी के साथ देखकर मैंने सवाल किया. क्या तुम दोनों की भी शादी हो गयी है? नहीं भैया, हमारे में ऐसा नहीं होता है. हम लोगो के पूरी उम्र होने पर ही शादी होती है. एक लड़की के गले में टंगा हुआ थैला देखकर मैंने इशारा करते हुए पूछा- इसमें क्या है? इसमें पैसे है, लड़की ने उत्तर दिया. कितने है? होगा आठ-दस रुपया. मैंने चुटकी लेते हुए कहा- आवाज तो बहुत सारे सिक्को की आ रही है. एक लड़की खीझते हुए बोली “दे नहीं रहा है, दुनिया का टिटिम्मा बतिया रहा है.” मै उनकी मासूमियत, हाजिर जवाबी, ज़माने की ठोकरों से पाई परिपक्वता और भीड़ में भी जीवंत दृढ इच्छाशक्ति को देखता रह गया. जेब से तीनो के लिए एक-एक रुपया निकाला और उनके ‘शनि दान’ वाले तेल के कटोरे में न डालकर उनके हाथो पर रखकर अपनी मजदूरी स्थल की ओर चल दिया. पीछे मुड़कर देखा तो तीनो लडकिया अपनी धुन में आगे बढ़ी चली जा रही थीं.

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